मेरी कविताएं




आवारा शाखों पर
कल रात भर
चांदनी से
शबनम कुछ यूं गिरी
कि
भोर गीली थी...

2.
शाम के धुंधलके में
हम तुम जो साथ चल रहे हैं
इक दूसरे का हाथ, हाथ में लिए
सुनसान राहों पर
मैं देखती हूं सूरज को तुम्हारी आंखों में ढलते हुए
मैं इसे अपनी आंखो में समा कर रखूंगी रातभर
सपनों की तरह
सुबह फिर से निकलेगा यह सूरज
हम फिर निकल पड़ेंगे
इक कभी ना खत्म होने वाली
लंबी और नई राह पर
साथ-साथ चलने के लिए...

14 टिप्पणियाँ:

संजय भास्‍कर 16 अप्रैल 2011 को 8:01 am बजे  

एक सम्पूर्ण पोस्ट और रचना!
यही विशे्षता तो आपकी अलग से पहचान बनाती है!

शिवम् मिश्रा 16 अप्रैल 2011 को 8:17 am बजे  

असीमा भट्ट जी इस आमद के लिए बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !

Udan Tashtari 16 अप्रैल 2011 को 8:39 am बजे  

अहसासों की सुन्दर प्रस्तुति!!

Rakesh Kumar 16 अप्रैल 2011 को 10:40 am बजे  

खूबसूरत शब्द ,खूबसूरत अहसास
दिल से निकले,सीधे दिल को छूते हैं.
मेरे ब्लॉग 'मनसा वाचा कर्मणा'पर आपका स्वागत है.
मुझे भी ब्लॉग जगत में खुशदीप भाई ही लाये थे.

राज भाटिय़ा 16 अप्रैल 2011 को 11:06 am बजे  

अति सुन्दर प्रस्तुति!!

संगीता स्वरुप ( गीत ) 16 अप्रैल 2011 को 11:34 am बजे  

बहुत सुन्दर एहसास

Dr (Miss) Sharad Singh 17 अप्रैल 2011 को 10:08 pm बजे  

किसी से उधार मांग कर लाई थी
जिंदगी
वो भी किसी के पास गिरवी रख दी.

खूबसूरत कविताएं...
असीमा जी, आपकी कविताएं पढ़ना सुखद लगा।

नीलांश 27 जून 2011 को 6:41 pm बजे  

में ढलते हुए
मैं इसे अपनी आंखो में समा कर रखूंगी रातभर
सपनों की तरह
सुबह फिर से निकलेगा यह सूरज
हम फिर निकल पड़ेंगे
इक कभी ना खत्म होने वाली
लंबी और नई राह पर
साथ-साथ चलने के लिए...

nice

Yashwant R. B. Mathur 1 अगस्त 2011 को 10:10 pm बजे  

बेहतरीन।
---------
कल 03/08/2011 को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

रेखा 3 अगस्त 2011 को 3:39 am बजे  

सुन्दर और सार्थक रचना

vandana gupta 3 अगस्त 2011 को 5:39 am बजे  

बहुत सुन्दर भाव्।

वीना श्रीवास्तव 3 अगस्त 2011 को 9:10 am बजे  

बहुत सुंदर रचना....

Dorothy 3 अगस्त 2011 को 7:46 pm बजे  

खूबसूरत अहसासों को पिरोती हुई एक सुंदर रचना. आभार.
सादर,
डोरोथी.

लोकेश सिंह 28 मार्च 2012 को 3:44 am बजे  

ati uttam kavita

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मैं कौन हूं ? इस सवाल की तलाश में तो बड़े-बड़े भटकते फिरे हैं, फिर चाहे वो बुल्लेशाह हों-“बुल्ला कि जाना मैं कौन..” या गालिब हों- “डुबोया मुझको होने ने, ना होता मैं तो क्या होता..”, सो इसी तलाश-ओ-ताज्जुस में खो गई हूं मैं- “जो मैं हूं तो क्या हूं, जो नहीं हूं तो क्या हूं मैं...” मुझे सचमुच नहीं पता कि मैं क्या हूं ! बड़ी शिद्दत से यह जानने की कोशिश कर रही हूं. कौन जाने, कभी जान भी पाउं या नहीं ! वैसे कभी-कभी लगता है मैं मीर, ग़ालिब और फैज की माशूका हूं तो कभी लगता है कि निजामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो की सुहागन हूं....हो सकता कि आपको ये लगे कि पागल हूं मैं. अपने होश में नहीं हूं. लेकिन सच कहूं ? मुझे ये पगली शब्द बहुत पसंद है…कुछ कुछ दीवानी सी. वो कहते हैं न- “तुने दीवाना बनाया तो मैं दीवाना बना, अब मुझे होश की दुनिया में तमाशा न बना…”

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