अब दुनिया के सामने एक सवाल हैं मेरे पापा-सुरेश भट्ट

असीमा भट्ट

सुरेश भट्ट-कोई आम इनसान नहीं हैं। छात्र आंदोलन से लेकर जे.पी. आंदोलन तक सक्रिय रहने वाले इनसान ने सारा जीवन समाज के लिए झोंक दिया। सिनेमा हॊल और करोड़ो की जायदाद के मालिक जिनका ईंट का भट्टा और अनगिनत संपति थी, सब को छोड़ने के साथ अपनी अपनी पत्नी और चार छोटे छोटे बच्चों को भी छोड़ दिया। और समाज सेवा में सच्चे दिल और पूरी ईमानदारी से जुट गए। कभी अपनी सुख सुविधा का खयाल नहीं किया। सालों जेल में गुजारा..लालू यादव से लेकर नीतिश कुमार और जार्ज फर्नांडिस तक उन्हें गुरुदेव से संबोधित करते थे... सारे कॊमरेड के वह आईडियल थे...आज वह इनसान कहां है ? क्या किसी भी नेताओं को या आम जनता को जिनके लिए लगातार वो लड़े और फकीरो की तरह जीवन जीया...कभी सत्ता का लोभ नहीं किया..वो कहते थे --हम सरकार बनाते हैं, सरकार में शामिल नहीं होते..बहुत कम लोग इस बात पर यकीन करेंगे कि सुरेश भट्ट का कोई बैंक एकाउंट कभी नहीं रहा। जेब में एक रुपया भी रहता था तो वो लोगो की मदद करने के लिए तत्पर रहते थे। और लोगो को वो रुपया दे देते थे। कभी उन्होंने अपने बच्चो की परवाह नहीं की। हमेशा कहा करते थे--सारे हिंदुस्तान का बच्चा मेरे बच्चे जैसा है। जिस दिन सारे हिंदुस्तानी बच्चे का पेट भरा होगा उस दिन मुझे शांति मिलेगी। लाल सलाम का झंडा उठाया पूरा जीव, अपने आप को और अपने स्वास्थ्य को इगनोर किया। अपने प्रति हमेशा ही लापरवाह रहे और घुमक्कड़ी करते हुए जीए...आज वो इनसान दिल्ली के ओल्ड एज होम में क गुमनाम जिंदगी जी रहा है। छह साल पहले उनका ब्रेन हेमरेज हुआ था तब से वे अस्वस्थ हैं।
अब दुनिया के सामने एक सवाल है...एसे लोगो का क्या यही हश्र होना चाहिए जो दुनिया के लिए जीए, आद दुनिया उन्हीं से बेखबर है....

मेरी कविता...

पिता   

शाम काफी हो चुकी है
पर अंधेरा नहीं हुआ है अभी
हमारे शहर में तो इस वक्त
रात का सा माहौल होता है।
छोटे शहरों में शाम जल्दी घिर आती है
बड़े शहरों के बनिस्बत लोग घरों में
जल्दी लौट आते हैं
जैसे पंछी अपने घोंसलों में।

यह क्या है/ जो मैं लिख रही हूं।
शाम या रात के बारे में
जबकि पढऩे बैठी थी नाजिम हिकमत को
कि अचानक याद आए मुझे मेरे पिता।

आज वर्षों बाद
कुछ समय/ उनका साथ मिला
अक्सर हम हमने बड़े हो जाते हैं कि
पिता कहीं दूर छूट जाते हैं।

पिता के मेरे साथ होने से ही
वह क्षण महान हो जाता है।

याद आता है मुझे मेरा बचपन
मैक्सिम गोर्की के मेरा बचपन की तरह
याद आते हैं मेरे पिता
और उनके साथ जीये हुए लम्हें।
हालांकि उनका साथ उतना ही मिला
जितना कि सपने में मिलते हैं
कभी कभार खूबसूरत पल।

उन्हें ज्यादातर मैंने
जेल में ही देखा
अन्य क्रांतिकारियों की तरह
मेरे पिता ने भी मुझसे सलाखों के
उस पार से ही किया प्यार।

उनसे मिलते हुए
पहले याद आती है जेल
फिर उसके पीछे लोहे की दीवार
उसके पीछे से पिता का मुस्कुराता
हुआ चेहरा।

वे दिन-जब मैं बच्ची थी
उनके पीछे-पीछे/ लगभग दौड़ती।
जब मैं थक जाती
थाम लेती थी पिता की उंगलियां
उनके व्यक्तित्व में मैं ढली
उनसे मैंने चलना सीखा
चीते ही तरह तेज चाल
आज वे मेरे साथ चल रहे हैं,
साठ पार कर चुके मेरे पिता
कई बार मुझसे पीछे छूट जाते हैं।

क्या यह वही पिता है मेरा... साहसी
फुर्तीला।
सोचते हुए मैं एकदम रूक जाती हूं
क्या मेरे पिता बूढ़े हो रहे है?
आखिर पिता बूढ़े क्यों हो जाते हैं?
पिता। तुम्हें  बूढ़ा नहीं होना चाहिए
ताकि दुनिया भर की सारी बेटियां
अपने पिता के साथ/ दौडऩा सीख सके
दुनिया भर में...

मेरे बारे में

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मैं कौन हूं ? इस सवाल की तलाश में तो बड़े-बड़े भटकते फिरे हैं, फिर चाहे वो बुल्लेशाह हों-“बुल्ला कि जाना मैं कौन..” या गालिब हों- “डुबोया मुझको होने ने, ना होता मैं तो क्या होता..”, सो इसी तलाश-ओ-ताज्जुस में खो गई हूं मैं- “जो मैं हूं तो क्या हूं, जो नहीं हूं तो क्या हूं मैं...” मुझे सचमुच नहीं पता कि मैं क्या हूं ! बड़ी शिद्दत से यह जानने की कोशिश कर रही हूं. कौन जाने, कभी जान भी पाउं या नहीं ! वैसे कभी-कभी लगता है मैं मीर, ग़ालिब और फैज की माशूका हूं तो कभी लगता है कि निजामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो की सुहागन हूं....हो सकता कि आपको ये लगे कि पागल हूं मैं. अपने होश में नहीं हूं. लेकिन सच कहूं ? मुझे ये पगली शब्द बहुत पसंद है…कुछ कुछ दीवानी सी. वो कहते हैं न- “तुने दीवाना बनाया तो मैं दीवाना बना, अब मुझे होश की दुनिया में तमाशा न बना…”

वक्त की नब्ज

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