आम का मौसम और नानी घर


मुम्बई में आम का मौसम आ गया. शायाद पूरे भारत में आम का मौसम आ गया है. लेकिन आम यहाँ इतने मंहगे हैं की पूछो मत. एक आम की कीमत २०० रुपुए. कीमत देख कर ही दिल भर जाता है, या फिर खरीद भी लो तो खाने का मन कम और डायनिग टेबल पर सजा के रखने का दिल ज्यादा करता है....
ऐसे में नानी घर के आमों की याद आती है. मेरा बचपन नानी घर में ज्यादा बीता. संथालपरगना के लक्ष्मीपुर में था मेरा नानी घर जो की आज कल झारखंड में आता है. तब बिलकुल आदिवासियों के बीच में घिरा हुआ गाँव था. चारों तरफ़ हरियाली ही हरियाली....प्रकृति की खूबसुरती देखते ही बनती थी. गठीले गबरू जवान, साहसी मर्द और गांव की सोंधी मिटटी सी महकती औरतें इतनी सुंदर कि एक बार  ऐश्वर्या राय भी शरमा जाए. खुद्दार और साहसी औरतें... पीपल की ऊँची-ऊँची फुनगियों तक पंहुच जाती थी .  पीपल के पत्ते तोडती थीं. कुछ जानवरों को खिलाने के लिये और कुछ का शायाद पतों को उबालकर शराब भी बनाती थीं. उन्हीं पतों से अपने बालों को भी सजा लेती थीं.  प्यार में साहस और जूनून ऐसा की अपने प्रेमी को कंधे पे उठाके चल दे.........
ओह! बात चली थी आम की. हाँ नानी घर में आम का बहुत बड़ा बगीचा था...
नाना जी ज़मींदार थे. डेढ़ सौ बीघा ज़मीन पर सिर्फ आम के ही बगीचे लगे हुए थे.... दूर- दूर तक बस आम ही आम के पेड़ दिखाई देते थे.. कि अक्सर उसमें खो जाने का डर होता. दसहरी, मालदा, कलकतिया, लंगड़ा, मिठुया, खट्टा-मीठा, राजभोग, सुगवा और ना जाने क्या-क्या नाम थे.
अक्सर गर्मियों में जो की आम का मौसम होता है हमसब नानी घर आ जाते थे.मासी जी भी अपने बच्चों के साथ आ जाती थीं. उनके तीन बच्चे थे. बड़े मामा जी के तब ६-७ बच्चे थे (अब नहीं रहे, उन्में से कई की असमय मौत हो गई), बीच वाले मामाजी के 3 बच्चे, और छोटे वाला मामा जी के भी २ बच्चे. और हम चार भाई-बहन (तीन बहन और एक भाई, जो कि बहुत ही दुष्ट था. नाना जी ने उसका नाम कडवा रखा था (भैंस के बच्चे को कहते हैं, नाना जी की एक आदत थी वो सभी बच्चों का नाम जानवरों के नाम पे रखते थे....) सभी भाई-बहन मिलकर दर्जनों हो जाया करते थे. राम की वानर सेना की तरह... सबके सब एक से बढ़कर एक बदमाश.... कौन कम है कहना मुश्किल....बहुत सी बदमाशियां करते. ऐसे हम किसी के साथ नहीं थे लेकिन बदमाशी में हमारा प्रोटोकाल एक हो जाता.  सब जैसे हम साथ-साथ हैं.  जो हमसे बड़े होते वो हमपे अपना हुकुम चलते और हम अपने से छोटे पर अपना हुकुम जताते. सब अपने - अपने ओहदे के हिसाब से अपना किरदार निभाते.   कभी खेतों में भाग जाते तो कभी पोखर में मंछली पकड़ते, कभी कुयें पर जो पानी वाली मशीन लगी होती, उसमे नहाते.....और इस डर से की घर जाने पर पिटाई होगी... वहीँ धुप में बैठकर कपड़े सुखाते और जब कपड़े सुख जाते तब घर आते......हमें गंदा देखकर कभी डांट पड़ती तो कभी की हम भूखे होंगे जल्दी-जल्दी खाना मिल जाता. माएँ इतनी सारी थी . हमें बचपन में पता ही नहीं था कि असल वाली (biological mother) कौन है. सब मामी, मासी मिलकर सभी बच्चों का काम करती तो मुझे क्या पता कौन किसकी माँ है. हाँ, जब पहली बार होश में मार पड़ी तो पता लगा कि ये असली वाली माँ है. अपनी माँ मारती है और बाकी सब मामी-मासी मिलकर pamper करती थी. .... इस तरह थोड़ा पता   चला कि असली माँ कौन है... फिर भी ज्यादा कोई फर्क नहीं पड़ता था..... हम अपना काम बड़े हक से किसी से भी (मामी-मासी)  करवा लेते थे इसलिए असल वाली माँ की ना कमी महसूस होती ना ही उनकी ज़रूरत...... रहो तुम माँ! हमें क्या लेना-देना.......
गर्मियों में सब बच्चों को  खिला -पिलाकर सुला दिया जाता था.... कोई बाहर नहीं निकलेगा सख्त पाबंदी होती थी..... लेकिन हम भी कहाँ मानने वाले थे..... हम तो शैतानों के शैतान थे जैसे ही घर के सभी लोग सो जाते  हम  पीछे के दरवाज़े से एक-एक करके  बाहर भाग जाते.... और आम के बगीचे में पंहुच कर बंदरों जैसे उत्पात मंचाते. पेड़ पर चढ जाते और हमें पता होता था कि कौन सा आप मीठा है..... जब आम कच्चे होते तो हम घर से नामक चुराकर लाते थे. और कच्चे आमों को नमक के  साथ खाते. कई बार तो हमारे मुंह में छाले भी हो जाते थे लेकिन परवाह किसको थी... आम खाना है, बस  तो खाना है. जब पकड़े जाते तो बड़े मामाजी की बड़ी मार पड़ती थी लेकिन तब भी बीच में नानी जी ढाल बनकर आ खड़ी हो जाती. और कहती - "बच्चे हैं, अरे ! ये बदमाशी नहीं करेगे तो क्या तू करेगा?"  नानी जी यानी नानाजी की माँ और मेरी माँ की दादी. मेरी नानी को तो मैंने देखा ही नहीं. वो तो मेरी माँ की शादी के कुछ ही दिनों बाद मर गई थीं.... नानी जी की घर में हुकूमत चलती थी. मज़ाल है कि उनकी मर्ज़ी के बिना एक पत्ता भी हिल जाए.... एक बार जो कह दिया सो कह दिया.... जो कहा, वही होगा....नानी जी का पूरा गांव आदर करता था. नानाजी भी वही करते जो नानीजी (परनानी) कहती थीं... कई बार तो उन्होंन हम बच्चों के सामने हमारे नानाजी पर हाथ भी उठा दिया था. और नानाजी चुपचाप सीधे बच्चे की तरह दरवाज़े पे चले जाते (आजकल के माँ - बाप ज़रा अपने जवान बच्चे पे हाथ उठाके दिखाये तो??????)
सबसे ज्यादा मज़ा तब आता जब आम पक जाते.... फिर तो नाना जी खुद हम सब बच्चों को और घर के नौकर और मजदूरों को लेकर बगीचे मै जाते.... हमें पके हुए आमों की खुशबू बहुत भाती थी... ऐसे भागते उन खुशबू की तरफ़ जैसे जंगल में हिरन भागता है....पके हुए आम अपने आप पेड़ों से टपक के गिरते... उनके टपाक से गिरने की आवाज़ से सीधे उस तरफ़ भागते जिस तरफ़ से आवाज़ आती... सब एक साथ दौड़ लगाते. कौन सबसे पहले आम लुटता है.....
आम खाना नानाजी ने ही सीखाया... पके हुए आमों को बड़ी - बड़ी बालटियों में भर कर कुएँ में डुबो दिया जाता फिर कुछ देर बाद उसे बाहर निकाल कर उसके ऊपर वाले हिस्से को मुंह से काटकर उसमें से २-४ बूंद रस निकाल लिये जाते.  नानाजी कहते इससे आम की गर्मी निकल जाती है और पेट के लिये अच्छा रहता है. आमों के मौसम मै तो कुएँ में बाल्टी के बाल्टी आम भरे ही रहते. और जैसे ही घर पर कोई आता आम उनके स्वागत के लिये  तैयार रहता......
रात में खाने के समय बड़े बड़े परात में आम रख दिया जाते.... एक-एक बच्चे कम से कम १० से २० आम खा जाते थे. मै खाती कम थी और गिराती ज्यादा.... आज भी मेरी वो आदत नहीं गई... आज भी खाते हुए मेरे कपड़े गंदे हो ही जाते हैं... हाँ, पहले बात  यह थी कि हाँथ - मुंह धुलाकर मामी नए फ्रोक पहना देती थी. मेरे फ्रोक पे हमेशा बहुत सुंदर सुंदर फूलों की कढाई होती थी.  मेरी माँ और बीच वाली मामी को कढाई का बहुत शौक था... मुझे बचपन के वो फ्रोक आज  भी याद है... कुछ दिनों पहले मैंने माँ से कहा-  "माँ, मेरे लिये फिर से वैसे ही कढाई वाला कुछ बना दो ना."  माँ बोली-  "कहाँ बेटा! तब की बात  और थी, तब लालटेन की रौशनी में भी रात-रात भर जग कर कढ़ाई-सिलाई करती थी. अब कहाँ. अब तो रौड की धुधिया रोशानी में भी आखें काम नहीं करतीं...."  मुझे याद है जब पापा इमरजेंसी में जेल चले गए और जेल से आने के बाद हमसब भाई-बहन को छोड़ कर देशसेवा करने निकल पड़े तो माँ ने हम चारों भाई बहन को सिलाई - कढाई करके ही बड़ा किया..   नाना जी मदद करना चाहते तो माँ का आत्मसम्मान आड़े आता. वो कहती -  "नहीं, बाबु जी!  माँ है नहीं, भाभियाँ हैं, परायी हैं किसी दिन पलट के उलाहना दे दिया तो? "
आम का मौसम खत्म होने को होता तो नाना जी कहते - "जी भरकर आम खा लो, अब अगले साल ही आम मिलेगा."  पर आम से इस तरह मन भर चुका होता कि आम के नाम से ही पेट भर जाता....
काश कि आज भी ऐसा होता... सुना है आम सभी फलों का  राजा है. अमीर-गरीब सब आम खाते हैं.  
दुआ करती हूँ कि सबको आम   नसीब हो...

4 टिप्पणियाँ:

प्रवीण पाण्डेय 2 जून 2012 को 7:54 am बजे  

इतने मँहगें आम खरीदकर मन पहले से ही खट्टा हो जाता है।

लोकेश सिंह 17 जुलाई 2012 को 1:02 am बजे  

आम का नाम आम शायद आम इसी लिए आम था क्योकि आम ही एक ऐसा फल था जो पूरे देश में अमीर गरीब सब को सर्व सुलभ था . लेकिन अज परिस्थिति दूसरी है आम न रह के खाश हो गया है .संस्मरण अति उत्तम है ,धन्यवाद .

NancyChopra 19 जुलाई 2018 को 1:17 am बजे  

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मैं कौन हूं ? इस सवाल की तलाश में तो बड़े-बड़े भटकते फिरे हैं, फिर चाहे वो बुल्लेशाह हों-“बुल्ला कि जाना मैं कौन..” या गालिब हों- “डुबोया मुझको होने ने, ना होता मैं तो क्या होता..”, सो इसी तलाश-ओ-ताज्जुस में खो गई हूं मैं- “जो मैं हूं तो क्या हूं, जो नहीं हूं तो क्या हूं मैं...” मुझे सचमुच नहीं पता कि मैं क्या हूं ! बड़ी शिद्दत से यह जानने की कोशिश कर रही हूं. कौन जाने, कभी जान भी पाउं या नहीं ! वैसे कभी-कभी लगता है मैं मीर, ग़ालिब और फैज की माशूका हूं तो कभी लगता है कि निजामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो की सुहागन हूं....हो सकता कि आपको ये लगे कि पागल हूं मैं. अपने होश में नहीं हूं. लेकिन सच कहूं ? मुझे ये पगली शब्द बहुत पसंद है…कुछ कुछ दीवानी सी. वो कहते हैं न- “तुने दीवाना बनाया तो मैं दीवाना बना, अब मुझे होश की दुनिया में तमाशा न बना…”

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