मेरी कुछ और कविताएं

असीमा भट्ट

1.
दुर्दिन में भी मासूम बच्चे खिलखिलाकर हंस रहे हैं
क्यारियों में अब भी खिल रहे हैं फूल
तितलियां अब भी नृत्य कर रही हैं
प्यार में धोखा खाई हुई प्रेमिकाएं
अब भी प्रेम कर रही हैं
चूम रही हैं अपने प्रेमी का माथा
कैसे कहें
वक्त बुरा है...

2.

मेरा मन
शून्य है
निराकार
जहां बजती है
तुम्हारी याद की घंटियां
रह रह कर
किसी प्राचीन, सुदूर मंदिरो की घंटियों की तरह
ब्रह्मांड रचने लगता है
इक नया संसार
इक नवजात शिशु किलकारियां लेता हुआ आ रहा है
मां के गर्भ से बाहर
रचने इस विश्व में
प्रेम का इक नया इतिहास...

3.
धीरे धीरे बोलो
हो सके तो मौन ही रहो
अभी शांत हुआ है
तलाब का ठहरा हुआ पानी...

4.
तुम एक
भटके हुए राही हो
और मैं इक राह
जिस पर से कोई गुजरा ही नहीं...

घर आई मां, इतने सालो बाद

असीमा भट्ट

घर आई है
सालो  बाद
मेरे घर..मेरे पास
छोटे से शहर से महानगर में
दूर दराज के शहरों के हमलोग
अजनबियो के बीच कितने अजनबी होते हैं
झूठमूठ के सपनो के लिए
मेले में खोए बच्चों की तरह
कुछ कुछ अनाथ से
वहीं जब मां आती है
भरी जेठ की दुपहरी में
मार्च की गुनगुनी धूप की तरह
धधकती लू में सावन की फुहार की तरह
मां आयी है...

लौट आया है फिर से मेरा बचपन
मां लेकर आयी है गांव से शुद्ध घी और शुद्ध नारियल का तेल
जिसमें उसलने अपने हाथो से मिलाया है कई जड़ी-बूटियां...
कहती है- कितने सुंदर थे तुम्हारे बाल,
और यहां देखो, कितने बेजान और रुखे हो गए..
अपने हाथो से तेल लगाती है मेरे बालों में और कहती-इससे तुम्हारे बाल झड़ने कम हो जाएंगे।

उन्हें शायद नहीं पता कि इस महानगर में बाल तो क्या हमारी जिंदगी भी दिन-ब-दिन झर रही है...
पूछती है-क्या खाएगी आज ?
नहीं बिना खाए घर से नहीं निकलते.
अच्छा नहीं होता, बिना कुछ भी खाए घर से निकलना..
कि सुबह-सुबह जब हम जल्दी में एक कप चाय पी कर भाग रहे होते हैं
 काम पर जल्दी और कहीं पहुंचने की हड़बड़ी में
तो मां लिफ्ट तक पीछे पीछे भागती हुई आती है
-कमसेकम एक पेड़ा तो खा लो...
और हम कैलोरीज और वेट बढने की चिंता से बेफिक्र,
बच्चों की तरह
दोनो हाथों से खाते जाते हैं पेड़ा
जैसे हम छुटपन में स्कूल जाते हुए रास्ते भर चबाते जाते थे लेमनचूस और लौलीपौप
मां तुम ऐसे ही आती रहो ना मेरे पास
ताकि हम ले सकें सुकून की कुछ सांस तुम्हारी गोद में सर रखकर....

ओ..मेरे सबकुछ

असीमा भट्ट 

मेरे सबकुछ
लिखना चाहती हूं तुम्हें,
मेरे सबकुछ
मेरे प्यारे
मेरे अच्छे
मेरे अपने
मेरे सबकुछ...
चलो..ले चलूं तुम्हें चांद के उस पार
ना जाने क्या हो वहां...
बरसो से सुनती आई हूं
चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो..
चलो मेरे सबकुछ, हम हैं तैयार चलो...
चलो कि चलें रेगिस्तान में
जहां रेत चमकती है पानी की तरह
बुझा लूं मैं उनसे अपनी प्यास
जो लोग समझते हैं कि वो रात
मृगतृष्णा है
और मृगतृष्णा से प्यास नहीं बुझती...
बहुत सयाने हैं वो लोग.
हम नही होना चाहते
उतने सयाने
मैं अपनी प्यास बुझाने की तलाश बरकरार रखना चाहती हूं मेरे सबकुछ...
मेरे सबकुछ
मैं झूम जाना चाहती हूं
तुम्हारी दोनों बांहों में
सावन के झूले की तरह
कि छू लूं मैं आकाश का एक कोना
तुम्हारी बांहों के सहारे
और लिख दूं
उस कोने पर तुम्हारा नाम-मेरे सबकुछ...
चलो कश्मीर चलें.
गर धरती पर जन्नत है तो--यहीं हैं, यहीं हैं, यहीं हैं...
मर कर जन्नत किसने देखा है
चलो, बना दूं लाल चिनार के पत्तों से मैं तेरा सेहरा
और बना लूं तुम्हें अपना सबकुछ...
मेरे सबकुछ...
मेरे सबकुछ.. ले चलना मुझे समद्र के किनारे
जहां देखना है समद्र को अपने सतह से ऊपर उठते हुए
कि लहरों को रौंद कर, कर देती है
सबकुछ इक
कि समुद्र और आसमान का फर्क मिट जाता है
और लगता है कि समुद्र में आसमान है या आसमान में समुद्र
हम-तुम पार कर आए उम्र की हर धुरी
पार कर लीं हर लकीरें
जहां खत्म हुई उम्र की सीमा और
शुरु हुआ हमारा प्यार मेरे सबकुछ...
मेरे सबकुछ...
अब हो कोई भी राह, कोई भी डगर, कोई भी मोड़
कभी अकेली मत छोड़ना मुझे
कि थक गई हूं इस अकेलेपन से
उम्र से लंबा मेरा
अकेलापन, तन्हाई, सूनापन
कि डर लगता है इससे
कि जैसे डरता है बच्चा
अंधेरे से
और घबरा कर रोते हुए पुकारता है -मां.........
वैसी ही पुकारती हूं तुम्हें
मेरे सबकुछ...

(यह कविता अमृता प्रीतम और इमरोज को समर्पित है। और उन तमाम अमृता को जो अपने अपने इमरोज की तलाश में भटर रही हैं..अमृता, इमरोज को--मेरेसबकुछ--बुलाती थीं।)



क्षणिकाएं


असीमा भट्ट

1.
रात सो रही है...
मैं जाग रही हूं...
गोया बे-ख्वाब मेरी आंखें
और मदहोश है जमाना...

2.
बहुत खाली-खाली है मन
माथे पर इक बिंदी सजा लूं...

3.
अचानक कहीं-कहीं से
बुलबुल बोल उठती है
दिल में भूली-बिसरी यादें हूक बनके उठती हैं...

4.
मैं सड़क पार कर रही हूं
और महसूस हो रहा है
कि तुमने मजबूती के साथ, कस के मेरा हाथ थाम रखा है...

5.
छोटी होती जा रही जिंदगी...
बड़ी तुम्हारी यादें
और उससे भी बड़ा
हमारे-तुम्हारे बीच का फासला...

अब दुनिया के सामने एक सवाल हैं मेरे पापा-सुरेश भट्ट

असीमा भट्ट

सुरेश भट्ट-कोई आम इनसान नहीं हैं। छात्र आंदोलन से लेकर जे.पी. आंदोलन तक सक्रिय रहने वाले इनसान ने सारा जीवन समाज के लिए झोंक दिया। सिनेमा हॊल और करोड़ो की जायदाद के मालिक जिनका ईंट का भट्टा और अनगिनत संपति थी, सब को छोड़ने के साथ अपनी अपनी पत्नी और चार छोटे छोटे बच्चों को भी छोड़ दिया। और समाज सेवा में सच्चे दिल और पूरी ईमानदारी से जुट गए। कभी अपनी सुख सुविधा का खयाल नहीं किया। सालों जेल में गुजारा..लालू यादव से लेकर नीतिश कुमार और जार्ज फर्नांडिस तक उन्हें गुरुदेव से संबोधित करते थे... सारे कॊमरेड के वह आईडियल थे...आज वह इनसान कहां है ? क्या किसी भी नेताओं को या आम जनता को जिनके लिए लगातार वो लड़े और फकीरो की तरह जीवन जीया...कभी सत्ता का लोभ नहीं किया..वो कहते थे --हम सरकार बनाते हैं, सरकार में शामिल नहीं होते..बहुत कम लोग इस बात पर यकीन करेंगे कि सुरेश भट्ट का कोई बैंक एकाउंट कभी नहीं रहा। जेब में एक रुपया भी रहता था तो वो लोगो की मदद करने के लिए तत्पर रहते थे। और लोगो को वो रुपया दे देते थे। कभी उन्होंने अपने बच्चो की परवाह नहीं की। हमेशा कहा करते थे--सारे हिंदुस्तान का बच्चा मेरे बच्चे जैसा है। जिस दिन सारे हिंदुस्तानी बच्चे का पेट भरा होगा उस दिन मुझे शांति मिलेगी। लाल सलाम का झंडा उठाया पूरा जीव, अपने आप को और अपने स्वास्थ्य को इगनोर किया। अपने प्रति हमेशा ही लापरवाह रहे और घुमक्कड़ी करते हुए जीए...आज वो इनसान दिल्ली के ओल्ड एज होम में क गुमनाम जिंदगी जी रहा है। छह साल पहले उनका ब्रेन हेमरेज हुआ था तब से वे अस्वस्थ हैं।
अब दुनिया के सामने एक सवाल है...एसे लोगो का क्या यही हश्र होना चाहिए जो दुनिया के लिए जीए, आद दुनिया उन्हीं से बेखबर है....

मेरी कविता...

पिता   

शाम काफी हो चुकी है
पर अंधेरा नहीं हुआ है अभी
हमारे शहर में तो इस वक्त
रात का सा माहौल होता है।
छोटे शहरों में शाम जल्दी घिर आती है
बड़े शहरों के बनिस्बत लोग घरों में
जल्दी लौट आते हैं
जैसे पंछी अपने घोंसलों में।

यह क्या है/ जो मैं लिख रही हूं।
शाम या रात के बारे में
जबकि पढऩे बैठी थी नाजिम हिकमत को
कि अचानक याद आए मुझे मेरे पिता।

आज वर्षों बाद
कुछ समय/ उनका साथ मिला
अक्सर हम हमने बड़े हो जाते हैं कि
पिता कहीं दूर छूट जाते हैं।

पिता के मेरे साथ होने से ही
वह क्षण महान हो जाता है।

याद आता है मुझे मेरा बचपन
मैक्सिम गोर्की के मेरा बचपन की तरह
याद आते हैं मेरे पिता
और उनके साथ जीये हुए लम्हें।
हालांकि उनका साथ उतना ही मिला
जितना कि सपने में मिलते हैं
कभी कभार खूबसूरत पल।

उन्हें ज्यादातर मैंने
जेल में ही देखा
अन्य क्रांतिकारियों की तरह
मेरे पिता ने भी मुझसे सलाखों के
उस पार से ही किया प्यार।

उनसे मिलते हुए
पहले याद आती है जेल
फिर उसके पीछे लोहे की दीवार
उसके पीछे से पिता का मुस्कुराता
हुआ चेहरा।

वे दिन-जब मैं बच्ची थी
उनके पीछे-पीछे/ लगभग दौड़ती।
जब मैं थक जाती
थाम लेती थी पिता की उंगलियां
उनके व्यक्तित्व में मैं ढली
उनसे मैंने चलना सीखा
चीते ही तरह तेज चाल
आज वे मेरे साथ चल रहे हैं,
साठ पार कर चुके मेरे पिता
कई बार मुझसे पीछे छूट जाते हैं।

क्या यह वही पिता है मेरा... साहसी
फुर्तीला।
सोचते हुए मैं एकदम रूक जाती हूं
क्या मेरे पिता बूढ़े हो रहे है?
आखिर पिता बूढ़े क्यों हो जाते हैं?
पिता। तुम्हें  बूढ़ा नहीं होना चाहिए
ताकि दुनिया भर की सारी बेटियां
अपने पिता के साथ/ दौडऩा सीख सके
दुनिया भर में...

अमृता का खत पढते हुए खुद प्रेम-पत्र हो जाना है

असीमा

अमृता-इमरोज के प्रेम पत्र पढ रही हूं। इमरोज ने खुद संपादित की है। अमृता के बाद वो उनके खत के जरिए अपने आस-पास महसूस करते हैं। बहुत खूबसूरत अहसास है उन्हें पढना...

क्या था उन दोनों में जो एक दूसरे के इतने कायल थे, मुरीद थे। कहां से आते हैं एसे इनसान और कहां चले जाते हैं...
पढती हूं और रोती हूं...वो खुशी के आंसू हैं या गम के मालूम ही नहीं पड़ता...शायद दोनो मिक्स।
पर कमाल है। एक जगह अमृता लिखती हैं--मेरे अच्छे जीते..मेरे कहने से मेरे कमरे में और रेडियोग्राम पर एसडी वर्मन को सुनना..
सुन मेरे बंधु रे...
सुन मेरे मितवा
सुन मेरे साथी रे...।
और मुझे बताना वो लोग कैसे होते हैं जिन्हें कोई इस तरह आवाज देता है...
आह,,,,अमृता और इमरोज ने मेरे प्यार की प्यास को और बढा दिया। पर ये वो लोग क्या समझेंगे जो जेब में कंडोम लेकर घूमते हैं। उन्हें तो ये भी नहीं पता(शायद) कि अमृता और इमरोज कौन हैं. कहां हैं... 

चांद, रात और नींद

इस रात के सूने आंचल में
सहर सोई लगती है
हर चीज मुझे अपनी ही क्यों
अपने से पराई लगती है...

2.

किसी से उधार मांग कर लाई थी
जिंदगी
वो भी किसी के पास गिरवी रख दी.

3.
नींद नहीं आ रही...
कौन है
जो इतनी रात गए
मेरे लिए जाग रहा है...

4.
जब पूरे अमावस की रात
तुम्हे पागलो की तरह
ढूंढ रही थी
उस रात
तुम कहां थे चांद ???????

मेरी कविताएं




आवारा शाखों पर
कल रात भर
चांदनी से
शबनम कुछ यूं गिरी
कि
भोर गीली थी...

2.
शाम के धुंधलके में
हम तुम जो साथ चल रहे हैं
इक दूसरे का हाथ, हाथ में लिए
सुनसान राहों पर
मैं देखती हूं सूरज को तुम्हारी आंखों में ढलते हुए
मैं इसे अपनी आंखो में समा कर रखूंगी रातभर
सपनों की तरह
सुबह फिर से निकलेगा यह सूरज
हम फिर निकल पड़ेंगे
इक कभी ना खत्म होने वाली
लंबी और नई राह पर
साथ-साथ चलने के लिए...

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
मैं कौन हूं ? इस सवाल की तलाश में तो बड़े-बड़े भटकते फिरे हैं, फिर चाहे वो बुल्लेशाह हों-“बुल्ला कि जाना मैं कौन..” या गालिब हों- “डुबोया मुझको होने ने, ना होता मैं तो क्या होता..”, सो इसी तलाश-ओ-ताज्जुस में खो गई हूं मैं- “जो मैं हूं तो क्या हूं, जो नहीं हूं तो क्या हूं मैं...” मुझे सचमुच नहीं पता कि मैं क्या हूं ! बड़ी शिद्दत से यह जानने की कोशिश कर रही हूं. कौन जाने, कभी जान भी पाउं या नहीं ! वैसे कभी-कभी लगता है मैं मीर, ग़ालिब और फैज की माशूका हूं तो कभी लगता है कि निजामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो की सुहागन हूं....हो सकता कि आपको ये लगे कि पागल हूं मैं. अपने होश में नहीं हूं. लेकिन सच कहूं ? मुझे ये पगली शब्द बहुत पसंद है…कुछ कुछ दीवानी सी. वो कहते हैं न- “तुने दीवाना बनाया तो मैं दीवाना बना, अब मुझे होश की दुनिया में तमाशा न बना…”

वक्त की नब्ज

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