अब दुनिया के सामने एक सवाल हैं मेरे पापा-सुरेश भट्ट

असीमा भट्ट

सुरेश भट्ट-कोई आम इनसान नहीं हैं। छात्र आंदोलन से लेकर जे.पी. आंदोलन तक सक्रिय रहने वाले इनसान ने सारा जीवन समाज के लिए झोंक दिया। सिनेमा हॊल और करोड़ो की जायदाद के मालिक जिनका ईंट का भट्टा और अनगिनत संपति थी, सब को छोड़ने के साथ अपनी अपनी पत्नी और चार छोटे छोटे बच्चों को भी छोड़ दिया। और समाज सेवा में सच्चे दिल और पूरी ईमानदारी से जुट गए। कभी अपनी सुख सुविधा का खयाल नहीं किया। सालों जेल में गुजारा..लालू यादव से लेकर नीतिश कुमार और जार्ज फर्नांडिस तक उन्हें गुरुदेव से संबोधित करते थे... सारे कॊमरेड के वह आईडियल थे...आज वह इनसान कहां है ? क्या किसी भी नेताओं को या आम जनता को जिनके लिए लगातार वो लड़े और फकीरो की तरह जीवन जीया...कभी सत्ता का लोभ नहीं किया..वो कहते थे --हम सरकार बनाते हैं, सरकार में शामिल नहीं होते..बहुत कम लोग इस बात पर यकीन करेंगे कि सुरेश भट्ट का कोई बैंक एकाउंट कभी नहीं रहा। जेब में एक रुपया भी रहता था तो वो लोगो की मदद करने के लिए तत्पर रहते थे। और लोगो को वो रुपया दे देते थे। कभी उन्होंने अपने बच्चो की परवाह नहीं की। हमेशा कहा करते थे--सारे हिंदुस्तान का बच्चा मेरे बच्चे जैसा है। जिस दिन सारे हिंदुस्तानी बच्चे का पेट भरा होगा उस दिन मुझे शांति मिलेगी। लाल सलाम का झंडा उठाया पूरा जीव, अपने आप को और अपने स्वास्थ्य को इगनोर किया। अपने प्रति हमेशा ही लापरवाह रहे और घुमक्कड़ी करते हुए जीए...आज वो इनसान दिल्ली के ओल्ड एज होम में क गुमनाम जिंदगी जी रहा है। छह साल पहले उनका ब्रेन हेमरेज हुआ था तब से वे अस्वस्थ हैं।
अब दुनिया के सामने एक सवाल है...एसे लोगो का क्या यही हश्र होना चाहिए जो दुनिया के लिए जीए, आद दुनिया उन्हीं से बेखबर है....

मेरी कविता...

पिता   

शाम काफी हो चुकी है
पर अंधेरा नहीं हुआ है अभी
हमारे शहर में तो इस वक्त
रात का सा माहौल होता है।
छोटे शहरों में शाम जल्दी घिर आती है
बड़े शहरों के बनिस्बत लोग घरों में
जल्दी लौट आते हैं
जैसे पंछी अपने घोंसलों में।

यह क्या है/ जो मैं लिख रही हूं।
शाम या रात के बारे में
जबकि पढऩे बैठी थी नाजिम हिकमत को
कि अचानक याद आए मुझे मेरे पिता।

आज वर्षों बाद
कुछ समय/ उनका साथ मिला
अक्सर हम हमने बड़े हो जाते हैं कि
पिता कहीं दूर छूट जाते हैं।

पिता के मेरे साथ होने से ही
वह क्षण महान हो जाता है।

याद आता है मुझे मेरा बचपन
मैक्सिम गोर्की के मेरा बचपन की तरह
याद आते हैं मेरे पिता
और उनके साथ जीये हुए लम्हें।
हालांकि उनका साथ उतना ही मिला
जितना कि सपने में मिलते हैं
कभी कभार खूबसूरत पल।

उन्हें ज्यादातर मैंने
जेल में ही देखा
अन्य क्रांतिकारियों की तरह
मेरे पिता ने भी मुझसे सलाखों के
उस पार से ही किया प्यार।

उनसे मिलते हुए
पहले याद आती है जेल
फिर उसके पीछे लोहे की दीवार
उसके पीछे से पिता का मुस्कुराता
हुआ चेहरा।

वे दिन-जब मैं बच्ची थी
उनके पीछे-पीछे/ लगभग दौड़ती।
जब मैं थक जाती
थाम लेती थी पिता की उंगलियां
उनके व्यक्तित्व में मैं ढली
उनसे मैंने चलना सीखा
चीते ही तरह तेज चाल
आज वे मेरे साथ चल रहे हैं,
साठ पार कर चुके मेरे पिता
कई बार मुझसे पीछे छूट जाते हैं।

क्या यह वही पिता है मेरा... साहसी
फुर्तीला।
सोचते हुए मैं एकदम रूक जाती हूं
क्या मेरे पिता बूढ़े हो रहे है?
आखिर पिता बूढ़े क्यों हो जाते हैं?
पिता। तुम्हें  बूढ़ा नहीं होना चाहिए
ताकि दुनिया भर की सारी बेटियां
अपने पिता के साथ/ दौडऩा सीख सके
दुनिया भर में...

38 टिप्पणियाँ:

बाबुषा 9 मई 2011 को 4:03 am बजे  

Regards to ur father..and this world has to answer ur question.

Rakesh Kumar 9 मई 2011 को 6:28 am बजे  

'त्वमेव माता च पिता त्वमेव' ईश्वर के लिए ही कहा गया है जो माँ और पिता बनकर हम पर अपना समस्त प्यार,दुलार और सहृदयता की बौछार करता है.माँ -पिता का प्यार दुलार अविस्मरणीय है.
आपकी पिता को समर्पित भावुक प्रस्तुति को सादर नमन.

Rakesh Kumar 9 मई 2011 को 6:30 am बजे  

कभी समय मिले तो मेरे ब्लॉग पर भी आइयेगा.

प्रवीण पाण्डेय 9 मई 2011 को 9:04 am बजे  

बहुत गर्व हुआ आपके पिता जी के बारे में पढ़कर।

Khushdeep Sehgal 9 मई 2011 को 11:16 pm बजे  

किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार,
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार,
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार

जीना इसी का नाम है...

जय हिंद...

issbaar 10 मई 2011 को 12:48 pm बजे  

अइसन पोस्ट लिख दिहलू तू कि मन कुछ सोचे पर विवश हो गइल. हमनि के केतना आपन-आपन रटिलाऽजा. लेकिन दीदी हो तोहार बाबूजी त आपन स्वार्थ के उतारि के आपन जिन्दगी देस खातिर लगा दिहले, तोहनियो जानि आपन पापा के प्यार पाव खातिर तरस गइलूजा. खैर, हमहू खालि दिलासा देवे के और का कहि सकिला.

दिनेशराय द्विवेदी 10 मई 2011 को 4:50 pm बजे  

ये भी शहादत का रूप है। शहादत कभी व्यर्थ नहीं जाती।
बिरवा फिर फिर फूट रहा है।

Rahul Singh 10 मई 2011 को 5:30 pm बजे  

मुझे लगता है, उन्‍हें अपने न जाने जाने का आज भी कोई अफसोस नहीं होगा न अपनी स्थिति से कोई शिकायत. आप इनका ख्‍याल रख रही हैं, तसल्‍ली है.

वाणी गीत 10 मई 2011 को 6:03 pm बजे  

अतुलनीय है उनका जीवन और उनके प्रति आपकी भावना ...!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 10 मई 2011 को 9:11 pm बजे  

गुरुदेव जी को प्रणाम!
रचना भी बहुत अच्छी है!

DR. ANWER JAMAL 10 मई 2011 को 9:16 pm बजे  

सारी ज़मीन एक प्रेतलोक बन चुकी है

@ असीमा, मेरी बहन ! यह दुनिया ख़ुदग़र्ज़ और अहसान फ़रामोश है। इसके पूंजीपति भी ऐसे ही हैं और इसके ग़रीब भी ऐसे ही हैं। आपके आदरणीय पिता जी ने अपनी नैतिक चेतना के प्रभाव में आकर जो कुछ किया, वह अपनी जगह दुरूस्त है। किसी के मानने या उसे नकारने से उसके सही होने में कोई अंतर नहीं आएगा और न ही आपके पिता की महानता में कोई कमी-बेशी होगी। जो भी नेकी और सच्चाई की राह पर चला है, आर्थिक रूप से वह अपने साथियों से पिछड़ता ही गया और अंत में उसे वह जनता भी भुला देती है, जिसके लिए वह लड़ता है।
जलियां वाला बाग़ में गोलियां खाने वालों को इस देश के नेता और जनता भुला चुके हैं, आपके पिता के साथ भी यही किया जा रहा है और देशसेवा करने वालों के साथ हमेशा यही किया जाएगा। यह एक सच है।
आपके मन की पीड़ा को मैं समझ सकता हूं। जो लोग कंधों पर उठाए जाने के लायक़ हों, उन्हें यूं नज़रअंदाज़ करने का मतलब है कि आगे से कोई भी ऐसा बलिदान नहीं करेगा और अगर करेगा तो उसका अंजाम भी यही होगा। जितने पढ़े-लिखे लोग हैं, वे इस सच्चाई से वाक़िफ़ हैं, इसीलिए वे 90 प्रतिशत भ्रष्ट हो चुके हैं। नेकी का बदला दुनिया कभी किसी को दे ही नहीं पाई, बदला तो सिर्फ़ वह मालिक ही देता है जिसने बंदे को पैदा किया और उसे नेकी की प्रेरणा दी है। दुनिया की सामूहिक नैतिक चेतना मृत प्रायः है, केवल शरीर ज़िंदा हैं। सारी ज़मीन एक प्रेतलोक बन चुकी है। इन प्रेतों के पास शरीर भी है। लगभग सभी भटक रहे हैं। सत्य और न्याय से तो बहुत कम मतलब रह गया है। हरेक आदमी ऐश करना चाहता है और समृद्ध होना चाहता है।
जो भी नेकी सच्चे मालिक को भुलाकर की जाती है, वह हसरत और अफ़सोस के सिवा कुछ और नहीं दे पाती। आपके आदरणीय पिता जी के द्वारा जो भी सत्य आप पर प्रकट हुआ है, उसे आप एक और महानतर सत्य को पाने का माध्यम बना लेंगी तो आपके मन की दुनिया में शिकायत और मायूसी के अंधेरों के बीच एक नई आशा का सूरज उगेगा। मुझे यह उजाला हासिल है, आपको भी मैं यही भेंट करता हूं।
आपके लिए और आपके आदरणीय पिता जी के लिए मैं पालनहार से विशेष प्रार्थना करूंगा।
धन्यवाद !
http://charchashalimanch.blogspot.com/2011/04/ungratefulness.html

असीमा 10 मई 2011 को 9:48 pm बजे  

शुक्रिया दोस्तो...
आप सबकी सदभावना के लिए बहुत बहुत आभार। मैं अपने पिता के पास नहीं, बहुत दूर हूं। वे दिल्ली में हैं, मैं मुंबई में। मिलने आती रहती हूं। उनके लिए तो पूरा देश-समाज ही उनका परिवार है। वे त्यागी हैं। हमारे साथ अब कहां रहेंगे। बस दुख होता है कि दुनिया ने उनके योगदान को भुला दिया। अपना दर्द आप दोस्तो से साझा करके अच्छा लगा।

असीमा

devendra gautam 10 मई 2011 को 11:53 pm बजे  

खुशदीप सहगल साहब के ब्लॉग पर मौजूद लिंक से इस ब्लॉग तक पहुंचा. पढ़कर मन विचलित हो उठा. राजनैतिक संतों से अक्सर यह गलती हो जाती है कि कृतघ्न और अवसरवादी लोगों को शिव की तरह वरदान दे डालते हैं. उनके बेशर्म और दोगले शिष्य सत्ता हाथ में आने के बाद गुरु की ओर मुड़कर देखना भी गवांरा नहीं करते. यही विडंबना है कि महात्मा गांधी से लेकर आपके पिता सुरेश भट्ट जी तक ने सत्ता के प्रति अपनी अरुचि के तहत अवसरवादियों को स्वार्थसिद्धि के लिए खुला मैदान सौंप दिया. संतों की उपेक्षा चंद लोग करते हैं लेकिन इसका खमियाजा पूरे राष्ट्र को भुगतना पड़ता है. शर्म से डूब मरना चाहिए भट्ट साहब के उन शिष्यों को जो सक्षम होते हुए भी इस हालत में पड़े अपने गुरुदेव का हाल-समाचार भी पूछने की ज़रूरत नहीं समझते. जो गुरु की सेवा नहीं कर पा रहे वे राष्ट्र की सेवा क्या करेंगे.

----देवेंद्र गौतम

shikha varshney 11 मई 2011 को 1:32 am बजे  

आपके पिता जी और आपकी भावनाओं को नमन.

रेखा श्रीवास्तव 11 मई 2011 को 2:50 am बजे  

आपके पिता को नमन! आपके पिता सरीखे ही इंसान के साथ जीवन गुजार रही हूँ, जिसने अपने से अधिक दूसरों कि सेवा में जीवन गुजारा , सीढ़ी समझ कर लोग चढ़े और ऊपर निकल गए फिर सीढ़ी का काम कहाँ रह जाता है? और जब थकने लगा तो सबने किनारा कर लिया, साथ रहे तो बस उसकी बेटी और पत्नी फिर भी वे संबल बने उनके सर पर हाथ रख कर कहते हैं कि मैं हूँ न.

vandana gupta 11 मई 2011 को 3:14 am बजे  

आपके पिता को नमन्।

आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (12-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

http://charchamanch.blogspot.com/

Unknown 11 मई 2011 को 4:09 am बजे  

अशीमा जी ये अहसान फरामोशों का देश है और राजनितिक अहसान फरामोश अत्यधिक ,आपके बाबूजी सच्चे अर्थोमे त्यागी पुरुष है मेरा नमन , ऐशे ही लोंगो से ये देश धनाड्य है, आप सौभाग्यशाली है जो उनका सानिध्य है जैसाः भी सही

निर्मला कपिला 11 मई 2011 को 4:40 am बजे  

ासीमा आँखें नम हो गयी---- लेकिन एक सवाल है कि तुम अपने पास क्यों नही रखती उन्हें? शायद कुछ मजबूरियाँ होंगी नही तो बेटियाँ कभी माँ बाप को इस हालत मे नही रख सकती। उनके स्वास्त्य्ह की कामना करती हूँ।

Satish Saxena 11 मई 2011 को 7:24 am बजे  


यहाँ यही बदकिस्मती है, हम लोगों की , हम स्वार्थियों को इससे कोई मतलब नहीं कि कौन कितना अच्छा है ! मतलब है तो इस बात से कि हमारा फायदा किस से होगा !
जो अब किसी के काम के नहीं उनका क्या करना है ??

एक बहुत कॉमन वाक्य प्रचलित हैं हमारे यहाँ .....
" इससे हमें क्या फायदा " मुझे लगता है, बहुसंख्यक लोग इस वाक्य को बचपन से प्रयोग करते हैं और अपने मानस में बिठा चुके हैं ! आपके पिता समान कोई कर्मयोगी हो अथवा खुद के बूढ़े माँ बाप , उनपर समय क्यों दिया जाए.... ? क्यों उनकी मदद के लिए भागें ...?? उस से उन्हें क्या फायदा.... ??

और हम लोग खुद भाषण देते समय हम भूल जाते हैं कि यह शब्द हमने ही उन्हें सिखाया है :-(
खैर यह लोग भी बूढें होंगे ....

कृपया अपने पिता का पता दें और अगर किसी प्रकार की मदद चाहिए तो मुझे मेल करें ! फोन नंबर दे रहा हूँ !
९८११०७६४५१

VICHAAR SHOONYA 11 मई 2011 को 8:47 am बजे  

असीमा जी बहुत बुरा लगा भट्ट साहब के बारे में जानकार और आपकी कविता भी बहुत ह्रदय स्पर्शी है पर ये समझ नहीं आया की वो ओल्ड एज होम में क्यों हैं. मेरी निम्न वर्गीय मानसिकता तो यही कहती है की उन्हें अपने परिवार और बच्चों के संरक्षण में होना चाहिए. क्या पूरा विवरण मिल पायेगा.

Sushil Bakliwal 11 मई 2011 को 9:39 am बजे  

अपने लिये तो सभी जीते हैं लेकिन सबके लिये जीने वाले बिरले ही मिल पाते हैं । आपके पापा की इस लोकहितकारी भावना की जितनी भी प्रशंसा की जावे कम ही है । उन्हें मेरा नमन...

राज भाटिय़ा 11 मई 2011 को 10:31 am बजे  

असीमा भट्ट जी आप को मान होना चाहिये अपने पिता जी पर, आज भी लोग इन्हे इज्जत देते हे, मान सम्मान देते हे, पैसो का क्या? जिन्होने झुठे वादे कर के अपार दोलत बटोर ली हे, मरेगे तो वो भी हमारी तरह ही, लेकिन उन्हे लोग आज भी गालिया देते हे, ओर मरने के बाद भी उन्हे गालिया ही मिलनी हे, उन के बच्चे भी हद से ज्यादा नालयक ही निकलेगे.आप के पिता जी को नमन हे, उन के होस्सले को नमन

रश्मि प्रभा... 11 मई 2011 को 7:02 pm बजे  

पिता बूढ़े नहीं होते ... बच्चों के मजबूत हौसले उनकी उम्र होते हैं

संगीता स्वरुप ( गीत ) 11 मई 2011 को 9:48 pm बजे  

पिता बस पिता होते हैं ...सुन्दर अभिव्यक्ति

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक 11 मई 2011 को 11:53 pm बजे  

@असीमा जी, आपको अपने पिताश्री पर फक्र होना चाहिए. त्यागी और तपस्वी इन मोह-माया की वस्तुओं से प्रेम नहीं करता है. उसको सिर्फ परमपिता से प्रेम होता है और उसके प्रेम के आगे सब निर्थक है. आपको अपने पिता की स्थिति पर अफ़सोस जरुर है.मगर आपके पिताश्री को अपनी हालत पर संतोष है. एक संतोष धन वाला व्यक्ति ही कभी ख़ाली हाथ नहीं लौटता है. बाकी सब ख़ाली हाथ आते हैं और ख़ाली हाथ वापिस लौट जाते हैं. सब की टिप्पणियों से सहमत हूँ लेकिन श्री दिनेश राय द्विवेदी, अनवर जमाल, ग़ज़ल गंगा, सतीश सक्सेना और राज भाटिया जी के शब्दों को मेरे भी माने.
@असीमा जी, आपने कहा कि-मुझे ये पगली शब्द बहुत पसंद है......और मुझे "सिरफिरा." क्या इस सिरफिरे को उसके ब्लोगों पर मिलना चाहेंगी?

क्या ब्लॉगर मेरी थोड़ी मदद कर सकते हैं अगर मुझे थोडा-सा साथ(धर्म और जाति से ऊपर उठकर"इंसानियत" के फर्ज के चलते ब्लॉगर भाइयों का ही)और तकनीकी जानकारी मिल जाए तो मैं इन भ्रष्टाचारियों को बेनकाब करने के साथ ही अपने प्राणों की आहुति देने को भी तैयार हूँ. आज सभी हिंदी ब्लॉगर भाई यह शपथ लें
अगर आप चाहे तो मेरे इस संकल्प को पूरा करने में अपना सहयोग कर सकते हैं. आप द्वारा दी दो आँखों से दो व्यक्तियों को रोशनी मिलती हैं. क्या आप किन्ही दो व्यक्तियों को रोशनी देना चाहेंगे? नेत्रदान आप करें और दूसरों को भी प्रेरित करें क्या है आपकी नेत्रदान पर विचारधारा?

दिगम्बर नासवा 12 मई 2011 को 5:01 am बजे  

श्रद्धा से माता झुक जाता है ... नमन है ऐसी विभूति को ...

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक 14 मई 2011 को 12:29 am बजे  

@असीमा जी, आपको अपने पिताश्री पर फक्र होना चाहिए. त्यागी और तपस्वी इन मोह-माया की वस्तुओं से प्रेम नहीं करता है. उसको सिर्फ परमपिता से प्रेम होता है और उसके प्रेम के आगे सब निर्थक है. आपको अपने पिता की स्थिति पर अफ़सोस जरुर है.मगर आपके पिताश्री को अपनी हालत पर संतोष है. एक संतोष धन वाला व्यक्ति ही कभी ख़ाली हाथ नहीं लौटता है. बाकी सब ख़ाली हाथ आते हैं और ख़ाली हाथ वापिस लौट जाते हैं. सब की टिप्पणियों से सहमत हूँ लेकिन श्री दिनेश राय द्विवेदी, अनवर जमाल, ग़ज़ल गंगा, सतीश सक्सेना और राज भाटिया जी के शब्दों को मेरे भी माने.@असीमा जी, आपने कहा कि-मुझे ये पगली शब्द बहुत पसंद है......और मुझे "सिरफिरा." क्या इस सिरफिरे को उसके ब्लोगों पर मिलना चाहेंगी?


क्या ब्लॉगर मेरी थोड़ी मदद कर सकते हैं अगर मुझे थोडा-सा साथ(धर्म और जाति से ऊपर उठकर"इंसानियत" के फर्ज के चलते ब्लॉगर भाइयों का ही)और तकनीकी जानकारी मिल जाए तो मैं इन भ्रष्टाचारियों को बेनकाब करने के साथ ही अपने प्राणों की आहुति देने को भी तैयार हूँ. आज सभी हिंदी ब्लॉगर भाई यह शपथ लें
अगर आप चाहे तो मेरे इस संकल्प को पूरा करने में अपना सहयोग कर सकते हैं. आप द्वारा दी दो आँखों से दो व्यक्तियों को रोशनी मिलती हैं. क्या आप किन्ही दो व्यक्तियों को रोशनी देना चाहेंगे? नेत्रदान आप करें और दूसरों को भी प्रेरित करें क्या है आपकी नेत्रदान पर विचारधारा?

भारतीय नागरिक - Indian Citizen 14 मई 2011 को 6:06 am बजे  

असीमा जी, वे नींव के पत्थर हैं और हमारे यहां नींव के पत्थरों को कोई नहीं पूजता और पूजता भी नहीं... यह विडम्बना है..

भारतीय नागरिक - Indian Citizen 14 मई 2011 को 6:06 am बजे  

असीमा जी, वे नींव के पत्थर हैं और हमारे यहां नींव के पत्थरों को कोई नहीं पूजता और पूजता भी नहीं... यह विडम्बना है..

किलर झपाटा 14 मई 2011 को 6:21 pm बजे  

असीमा जी अब इस बात पर कुछ भी कहते नहीं बन रहा। कविता बहुत ही प्रेरणादायी है।

Rohit Singh 24 मई 2011 को 11:32 am बजे  

आपने अपने dकुछ इसी तरह के प्रश्न से मे भी गुजर रहा हूं। फिलहाल काफी दूर हूं इसके जवाब को पाने से। इतना ही जाना की निस्वार्थ काम करने इन लोगो का काम था। पर हर बार लगता है कि आखिर क्यों अपनी शाम में ये इतने अकेले हो जाते हैं....समाज एक बार मुड़कर भी नहीं देखता....फिर क्यों और किस आसरे समाज बात करता है कि उसे सच्चे लोग नहीं मिलते चारो तरफ अंधकार की शिकायत करने वाला समाज औऱ लोग लौ दिखाने वालो को याद ही नहीं रखते, तो फिर कौन लेगा प्रेरणा..औऱ कैसे लेगा। ऐसे लोगो की संतानें हमेशा ही अपने माता-पिता के कामों का औचित्य ही समझने में लगे रहते हैं। आखिर कुछ मांगते तो नहीं, हम जैसे लोगो का एक यही तो सवाल होता है कि आखिर ऐसे लोग गुमनाम से क्यों होने लगते हैं।

डॉ. जेन्नी शबनम 1 अगस्त 2011 को 3:21 am बजे  

Aseema ji,
aapke pita ke baare mein padhkar bahut garv hua aur apne pita ko yaad kar aankhein bhi bheeng gayee. mere pita bhi vaampanthi they, aur unke sath main bhi samaj ke sangharsh ko nazdeek se dekhi hun saath hin un comreds ki sthiti bhi jo full time party aur samaj ko samarpit kar dete hain. aapke pita ki sthiti bhi waisi hin hai. yun to mere pita ki mrityu kafi pahle ho gai jab mujhe vaampanth ki samajh nahin thee. par unki chhap aaj bhi mere sath hai apni samajh ke saath. comrade Suresh Bhatt ko laal salam!

चंदन कुमार मिश्र 14 सितंबर 2011 को 8:10 am बजे  
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
चंदन कुमार मिश्र 14 सितंबर 2011 को 8:11 am बजे  
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
‘सज्जन’ धर्मेन्द्र 6 जून 2013 को 5:24 am बजे  

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा
इतना ही कह सकूँगा इस पोस्ट पर

अनिता कर्ण 17 जुलाई 2013 को 4:00 am बजे  

बहुत खूबसूरत लिखा है आपने क्रांति जी ...अनिता कर्ण http://anitakarnsinha.blogspot.in/

विनोद आनंद 28 फ़रवरी 2016 को 7:03 am बजे  

asima ji aap ka bloog dhekha isme niymit kuch likhen

कविता रावत 12 फ़रवरी 2017 को 1:32 am बजे  

मर्मस्पर्शी प्रस्तुति ..

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मैं कौन हूं ? इस सवाल की तलाश में तो बड़े-बड़े भटकते फिरे हैं, फिर चाहे वो बुल्लेशाह हों-“बुल्ला कि जाना मैं कौन..” या गालिब हों- “डुबोया मुझको होने ने, ना होता मैं तो क्या होता..”, सो इसी तलाश-ओ-ताज्जुस में खो गई हूं मैं- “जो मैं हूं तो क्या हूं, जो नहीं हूं तो क्या हूं मैं...” मुझे सचमुच नहीं पता कि मैं क्या हूं ! बड़ी शिद्दत से यह जानने की कोशिश कर रही हूं. कौन जाने, कभी जान भी पाउं या नहीं ! वैसे कभी-कभी लगता है मैं मीर, ग़ालिब और फैज की माशूका हूं तो कभी लगता है कि निजामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो की सुहागन हूं....हो सकता कि आपको ये लगे कि पागल हूं मैं. अपने होश में नहीं हूं. लेकिन सच कहूं ? मुझे ये पगली शब्द बहुत पसंद है…कुछ कुछ दीवानी सी. वो कहते हैं न- “तुने दीवाना बनाया तो मैं दीवाना बना, अब मुझे होश की दुनिया में तमाशा न बना…”

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