असीमा भट्ट
घर आई है
सालो बाद
मेरे घर..मेरे पास
छोटे से शहर से महानगर में
दूर दराज के शहरों के हमलोग
अजनबियो के बीच कितने अजनबी होते हैं
झूठमूठ के सपनो के लिए
मेले में खोए बच्चों की तरह
कुछ कुछ अनाथ से
वहीं जब मां आती है
भरी जेठ की दुपहरी में
मार्च की गुनगुनी धूप की तरह
धधकती लू में सावन की फुहार की तरह
मां आयी है...
लौट आया है फिर से मेरा बचपन
मां लेकर आयी है गांव से शुद्ध घी और शुद्ध नारियल का तेल
जिसमें उसलने अपने हाथो से मिलाया है कई जड़ी-बूटियां...
कहती है- कितने सुंदर थे तुम्हारे बाल,
और यहां देखो, कितने बेजान और रुखे हो गए..
अपने हाथो से तेल लगाती है मेरे बालों में और कहती-इससे तुम्हारे बाल झड़ने कम हो जाएंगे।
उन्हें शायद नहीं पता कि इस महानगर में बाल तो क्या हमारी जिंदगी भी दिन-ब-दिन झर रही है...
पूछती है-क्या खाएगी आज ?
नहीं बिना खाए घर से नहीं निकलते.
अच्छा नहीं होता, बिना कुछ भी खाए घर से निकलना..
कि सुबह-सुबह जब हम जल्दी में एक कप चाय पी कर भाग रहे होते हैं
काम पर जल्दी और कहीं पहुंचने की हड़बड़ी में
तो मां लिफ्ट तक पीछे पीछे भागती हुई आती है
-कमसेकम एक पेड़ा तो खा लो...
और हम कैलोरीज और वेट बढने की चिंता से बेफिक्र,
बच्चों की तरह
दोनो हाथों से खाते जाते हैं पेड़ा
जैसे हम छुटपन में स्कूल जाते हुए रास्ते भर चबाते जाते थे लेमनचूस और लौलीपौप
मां तुम ऐसे ही आती रहो ना मेरे पास
ताकि हम ले सकें सुकून की कुछ सांस तुम्हारी गोद में सर रखकर....
घर आई है
सालो बाद
मेरे घर..मेरे पास
छोटे से शहर से महानगर में
दूर दराज के शहरों के हमलोग
अजनबियो के बीच कितने अजनबी होते हैं
झूठमूठ के सपनो के लिए
मेले में खोए बच्चों की तरह
कुछ कुछ अनाथ से
वहीं जब मां आती है
भरी जेठ की दुपहरी में
मार्च की गुनगुनी धूप की तरह
धधकती लू में सावन की फुहार की तरह
मां आयी है...
लौट आया है फिर से मेरा बचपन
मां लेकर आयी है गांव से शुद्ध घी और शुद्ध नारियल का तेल
जिसमें उसलने अपने हाथो से मिलाया है कई जड़ी-बूटियां...
कहती है- कितने सुंदर थे तुम्हारे बाल,
और यहां देखो, कितने बेजान और रुखे हो गए..
अपने हाथो से तेल लगाती है मेरे बालों में और कहती-इससे तुम्हारे बाल झड़ने कम हो जाएंगे।
उन्हें शायद नहीं पता कि इस महानगर में बाल तो क्या हमारी जिंदगी भी दिन-ब-दिन झर रही है...
पूछती है-क्या खाएगी आज ?
नहीं बिना खाए घर से नहीं निकलते.
अच्छा नहीं होता, बिना कुछ भी खाए घर से निकलना..
कि सुबह-सुबह जब हम जल्दी में एक कप चाय पी कर भाग रहे होते हैं
काम पर जल्दी और कहीं पहुंचने की हड़बड़ी में
तो मां लिफ्ट तक पीछे पीछे भागती हुई आती है
-कमसेकम एक पेड़ा तो खा लो...
और हम कैलोरीज और वेट बढने की चिंता से बेफिक्र,
बच्चों की तरह
दोनो हाथों से खाते जाते हैं पेड़ा
जैसे हम छुटपन में स्कूल जाते हुए रास्ते भर चबाते जाते थे लेमनचूस और लौलीपौप
मां तुम ऐसे ही आती रहो ना मेरे पास
ताकि हम ले सकें सुकून की कुछ सांस तुम्हारी गोद में सर रखकर....
6 टिप्पणियाँ:
कोमल भावो का सुन्दर चित्रण्।
ममत्व के कोमल भावों से भरी आपकी पंक्तियाँ।
उन्हें शायद नहीं पता कि इस महानगर में बाल तो क्या हमारी जिंदगी भी दिन-ब-दिन झर रही है...
पूछती है-क्या खाएगी आज ?
नहीं बिना खाए घर से नहीं निकलते.
अच्छा नहीं होता, बिना कुछ भी खाए घर से निकलना..
कि सुबह-सुबह जब हम जल्दी में एक कप चाय पी कर भाग रहे होते हैं
काम पर जल्दी और कहीं पहुंचने की हड़बड़ी में
तो मां लिफ्ट तक पीछे पीछे भागती हुई आती है
-कमसेकम एक पेड़ा तो खा लो...
और हम कैलोरीज और वेट बढने की चिंता से बेफिक्र,
बच्चों की तरह
दोनो हाथों से खाते जाते हैं पेड़ा
जैसे हम छुटपन में स्कूल जाते हुए रास्ते भर चबाते जाते थे लेमनचूस और लौलीपौप
मां तुम ऐसे ही आती रहो ना मेरे पास
ताकि हम ले सकें सुकून की कुछ सांस तुम्हारी गोद में सर रखकर....
माँ के प्यार जैसा ही निश्छल आपकी सोच , आपकी ख्वाहिश .... माँ के इस प्यार में अपने होने का एहसास होता है
शब्द-शब्द संवेदनाओं से भरी बहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी रचना !
इनसे बड़ा कोई नहीं ....शुभकामनायें आपको !
बहुत उम्दा ! बहुत खुबसूरत लिखती है आप,ऐसे ही लिखती रहें .....
एक टिप्पणी भेजें