असीमा भट्ट
मेरे सबकुछ
लिखना चाहती हूं तुम्हें,
मेरे सबकुछ
मेरे प्यारे
मेरे अच्छे
मेरे अपने
मेरे सबकुछ...
चलो..ले चलूं तुम्हें चांद के उस पार
ना जाने क्या हो वहां...
बरसो से सुनती आई हूं
चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो..
चलो मेरे सबकुछ, हम हैं तैयार चलो...
चलो कि चलें रेगिस्तान में
जहां रेत चमकती है पानी की तरह
बुझा लूं मैं उनसे अपनी प्यास
जो लोग समझते हैं कि वो रात
मृगतृष्णा है
और मृगतृष्णा से प्यास नहीं बुझती...
बहुत सयाने हैं वो लोग.
हम नही होना चाहते
उतने सयाने
मैं अपनी प्यास बुझाने की तलाश बरकरार रखना चाहती हूं मेरे सबकुछ...
मेरे सबकुछ
मैं झूम जाना चाहती हूं
तुम्हारी दोनों बांहों में
सावन के झूले की तरह
कि छू लूं मैं आकाश का एक कोना
तुम्हारी बांहों के सहारे
और लिख दूं
उस कोने पर तुम्हारा नाम-मेरे सबकुछ...
चलो कश्मीर चलें.
गर धरती पर जन्नत है तो--यहीं हैं, यहीं हैं, यहीं हैं...
मर कर जन्नत किसने देखा है
चलो, बना दूं लाल चिनार के पत्तों से मैं तेरा सेहरा
और बना लूं तुम्हें अपना सबकुछ...
मेरे सबकुछ...
मेरे सबकुछ.. ले चलना मुझे समद्र के किनारे
जहां देखना है समद्र को अपने सतह से ऊपर उठते हुए
कि लहरों को रौंद कर, कर देती है
सबकुछ इक
कि समुद्र और आसमान का फर्क मिट जाता है
और लगता है कि समुद्र में आसमान है या आसमान में समुद्र
हम-तुम पार कर आए उम्र की हर धुरी
पार कर लीं हर लकीरें
जहां खत्म हुई उम्र की सीमा और
शुरु हुआ हमारा प्यार मेरे सबकुछ...
मेरे सबकुछ...
अब हो कोई भी राह, कोई भी डगर, कोई भी मोड़
कभी अकेली मत छोड़ना मुझे
कि थक गई हूं इस अकेलेपन से
उम्र से लंबा मेरा
अकेलापन, तन्हाई, सूनापन
कि डर लगता है इससे
कि जैसे डरता है बच्चा
अंधेरे से
और घबरा कर रोते हुए पुकारता है -मां.........
वैसी ही पुकारती हूं तुम्हें
मेरे सबकुछ...
(यह कविता अमृता प्रीतम और इमरोज को समर्पित है। और उन तमाम अमृता को जो अपने अपने इमरोज की तलाश में भटर रही हैं..अमृता, इमरोज को--मेरेसबकुछ--बुलाती थीं।)
13 टिप्पणियाँ:
behad sunder bhaav
jaise sunti hu kinhi do ke beeck ka vartalaap
had an amazing feel while reading dis
aap bhi aaiye
Naaz
sundarta se piroye gaye shabd, bhavbheeni abhivyakti badhai aseema ji
बढ़िया कविता
शब्द-शब्द संवेदनाओं से भरी ख़ूबसूरत रचना ....
भावों की सुन्दर शब्द लहरी।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ...
सबकुछ तो है इसमेँ...बधाईसबकुछ तो है इसमेँ...बधाई
talaash rahi ek imroz ki... to padha hai ise saugaat maanker
क्या खूब कविता है प्रेमियों के लिए.. और सही समर्पण है अमृता और इमरोज़ को...
har aurat khud mein amrita dekhti hai aur ek imroz talashti hai jo uska sabkuchh ho. par koi dusri amrita na ban saki na koi imroz mil saka kisi ko abtak. kaash aisa ho...
bahut pyari rachna, bhaavmay prastuti, shubhkaamnaayen.
बहुत ही अच्छी और सच्ची कविता .. अमृता और इमरोज का प्रेम एक अमरप्रेम है .. आपकी रचना के शब्दों ने उस प्रेम को जीविंत कर दिया ..
बधाई
आभार
विजय
कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html
वाह!
मन के भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....
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