आवारा शाखों पर
कल रात भर
चांदनी से
शबनम कुछ यूं गिरी
कि
भोर गीली थी...
2.
शाम के धुंधलके में
हम तुम जो साथ चल रहे हैं
इक दूसरे का हाथ, हाथ में लिए
सुनसान राहों पर
मैं देखती हूं सूरज को तुम्हारी आंखों में ढलते हुए
मैं इसे अपनी आंखो में समा कर रखूंगी रातभर
सपनों की तरह
सुबह फिर से निकलेगा यह सूरज
हम फिर निकल पड़ेंगे
इक कभी ना खत्म होने वाली
लंबी और नई राह पर
साथ-साथ चलने के लिए...
14 टिप्पणियाँ:
एक सम्पूर्ण पोस्ट और रचना!
यही विशे्षता तो आपकी अलग से पहचान बनाती है!
असीमा भट्ट जी इस आमद के लिए बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
अहसासों की सुन्दर प्रस्तुति!!
खूबसूरत शब्द ,खूबसूरत अहसास
दिल से निकले,सीधे दिल को छूते हैं.
मेरे ब्लॉग 'मनसा वाचा कर्मणा'पर आपका स्वागत है.
मुझे भी ब्लॉग जगत में खुशदीप भाई ही लाये थे.
अति सुन्दर प्रस्तुति!!
बहुत सुन्दर एहसास
किसी से उधार मांग कर लाई थी
जिंदगी
वो भी किसी के पास गिरवी रख दी.
खूबसूरत कविताएं...
असीमा जी, आपकी कविताएं पढ़ना सुखद लगा।
में ढलते हुए
मैं इसे अपनी आंखो में समा कर रखूंगी रातभर
सपनों की तरह
सुबह फिर से निकलेगा यह सूरज
हम फिर निकल पड़ेंगे
इक कभी ना खत्म होने वाली
लंबी और नई राह पर
साथ-साथ चलने के लिए...
nice
बेहतरीन।
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कल 03/08/2011 को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
सुन्दर और सार्थक रचना
बहुत सुन्दर भाव्।
बहुत सुंदर रचना....
खूबसूरत अहसासों को पिरोती हुई एक सुंदर रचना. आभार.
सादर,
डोरोथी.
ati uttam kavita
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