उम्र भर इक मुलाकात चली जाती है....


'रेमो'  (Remo farnandis: the great singer)के घर गई तो ऐसा लगा 'अन्ना केरेनिना' अपना प्यार ढुंढने आई है...
पुराना घर, ढेर सारी पुरानी परम्पराओ (गोवन और पुर्तगीज)  को अपने आप मे समेटे हुए. बड़े-बड़े कमरे, ऊँची-ऊँची दीवारे, खुला आँगन....
 आँगन क्या जैसे एक बड़ा सा बागीचा. जिसमे आम, चीकू, केले और नारियल के पेड़ जिसमे बैठने के लिये लकड़ी की बेंच..... 
२००४ में पहली बार गोवा जाना हुआ. पहली बार दिल्ली की वजाय गोवा में इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल शुरू हुआ. गीता (गीताश्री) और मैं गोवा गये. पूरा प्लान गीता का ही था.  (हालांकि राजेंद्र यादव ने तंज किया था - 'साली तुमदोनों लेस्बियन हो क्या? कोई दो लड़कियाँ साथ में गोवा जाती है????)
मुझे समंदर बहुत आकर्षित करता रहा है... गोवा का नाम सुनते ही खुला समुन्द्र, नावें,नाविक, मछुयारे....घने नारियल के झुरमुट....काजू और बादाम के पेड़ कितना कुछ... हालाँकि जैसे ही गीता ने बताया की हम गोवा चलेंगे.... मेरे अंदर से  वो गाना गूंजने लगा- 'समन्दर , समन्दर! यहाँ से वहां तक, यह मौजो की चादर बीछी आस्मा तक........' बच्चे की तरह उत्सुकता थी मेरे भीतर. बहुत सी कल्पनाएं मेरे मन में खेल, खेल रही थी. 
दिल्ली निजामुद्दीन से गोवा जाने वाली 'राजधानी' में हम जैसे ही बैठे की सामने की सीट पर बहुत प्यारी सी महिला अपने दो बच्चों के साथ सफर कर रही थी. वो  गोवन थी. पूछने पर बताया कि वो  देहरादून अपनी बहन के पास आई थी. उनका नाम था मारिया (गीता आज भी मारिया के लिये गाती है- (ओ मारिया, ओ मारिया..)और बच्चे वरुण और वियोला.  हम एक पल में इतने अच्छे दोस्त बन गए कि लगा हम सब एक परिवार हों और एक ही साथ यात्रा कर रहे हों. मारिया के पहचान के एक और दोस्त हमारे साथ थे-  एडवोकेट प्रसाद. पति-पत्नी दोनों गोवा के जाने माने एडवोकेट हैं.
इतने प्यार से हँसते-खेलते दिल्ली से गोवा तक का लम्बा सफर कट गया कि पता ही नहीं चला. गोवा स्टेशन पंहुचाते ही मारिया और उनके बच्चे जिद्द करने लगे कि आपलोग हमारे साथ घर चलो. लेकिन हमारी होटल की बुकिंग दिल्ली से ही हो रखी थी.. इसलिए हम होटल गये... होटल भी हमें मारिया ने हो छोड़ा और रस्ते में एक बड़े खूबसूरत से बीच रेस्टोरेंट पर हमें 'गोवन सी' फ़ूड खिलाया. होटल छोडते वक्त तय हुआ कि शाम को हम सब क्रूज (वोट) पर मिलेंगे जहाँ संध्याकालीन संगीत का आयोजन होता है..सेलानियो को क्रूज बेहद पसंद है. हलके-फुल्के स्नेक्स के साथ थोड़ी शराब, नाच-गाना और मस्ती. बीच समन्दर में तैरते जहाज़ पर बड़ा ही मज़ा आता है...
अगले दिन से फिल्म फेस्टिवल शुरू हो गया. गीता-मै उसी में व्यस्त हो गये....
मेरे लिये यह सब बड़ा ही अनोखा था क्यूंकि मेरा पहला अनुभव था... गीता को आफिस (आउटलुक) के काम से वापस जल्दी दिल्ली लौटना पड़ा और मै जबतक फेस्टिवल था तब तक  मारिया के घर पर ठहर गई... इतने कम जान-पहचान में शायाद ही कोई मित्र इतना करीबी होता है. लेकिन मै बता दूं कि मारिया आज भी हमारी मित्र हैं. और उनके प्यार और अपनेपन की वजह से गोवा हमेशा अपना घर सा लगता है.. मारिया, खासकर मुझे हसेशा कहती है- 'Sweetheart, this is your house. you can come any time even in the 2 am at the night. door will be open for you always.' 
एक दिन मारिया से कुछ बातें हो रही थी कि अचानक ना जाने कहाँ से 'रेमो' की चर्चा आ गई...(वही रेमो फर्नांडिस जो-  'प्यार तो होना ही था और  हम्मा, हम्मा! हम्मा-हम्मा, हम्मा...'  गाने के लिये मशहुर रह चुके हैं) जैसे मेरी  नसें फडक उठी... मैंने उत्साह से  चिल्लाते हुए मारिया से पुछा- ' तुम रेमो को जानती हो? क्या रेमो ययां रहते हैं,,, मुझे लगा था की सारे singer की तरह वो भी मुम्बई रहते होंगे. ' वो बोली-  'Yes,  He is my nebour only.
क्या? मुझे उससे मिलना है. 
बात वहीँ खत्म हो गई.  शाम को मारिया अचानक गाड़ी में बिठा कर एक घर में ले आई. मैंने पूछा - किसका घर है. वो बोली -रेमो का.
क्या?
हाँ!
हम अंदर गये. एक बुजुर्ग महिला बाहर निकली. महिला ने बड़े प्यार से अभीवादन किया.
मारिया ने  मुझे बताया कि वो रेमो कि माँ है और उनसे  गोवन में पूछा- 'रेमो घर में है? यह मेरी फ्रेंड दिल्ली से आयी है, रेमो की फैन है.'
उनकी माँ ने कहा कि - 'रेमो तो आजकल गाँव (सियोल्म, गोवा से सटे गांव)  में रहता है.' 
यह सुन कर मेरा दिल बैठ गया.
वहाँ से बाहर निकले और मारिया की गाड़ी दौड़ पड़ी सियोल्म की तरफ... मैंने पूछा - बहुत दूर होगा...
मारिया बोली - So what? you are my dear friend.
रस्ते भर एक अजीब सा रोमांच था... गोवा की पतली सड़के, दोनों तरफ नारियल के पेड़ और समुन्द्र का किनारा...और ऊपर से शाम का समय.....चिड़ियों का कलरव....
मारिया बार-बार गाडी रोक कर गांव वालों से पूछती- 'रेमो च घर? यानी रेमो का घर'
लोग बताये बस थोड़ा सा आगे... इस तरह जब हम रेमो के  घर के करीब पंहुचे तो मारिया एकदम से बोली- 'Asmi (यह नाम उसी का दिया हुआ है), Have some gift for Remo and put some lipstic. you wil feel good and Remo wil like it.'
घर पंहुचे तो एक नौकरानी ने आकर हमारा स्वागत किया और बड़े से बरामदे से होते हुए वो हमें आंगन में बिठाकर यह कहके चली गई कि सर रिहर्सल कर रहे हैं. दरअसल रेमो को गोवा फिल्म फेस्टिवल के समापन पर एक खास संगीत परर्फार्म करना था जिसके लिये वो खास धुन तैयार कर रहे थे.
बगीचा बहुत ही रूमानी था... किसी प्रेमी जोड़े के लिये तो परफेक्ट. थोड़ी देर बाद रेमो आये... 'हाथ मिलते हुए कहा-- मै किसी से मिलना पसंद नहीं करता इसीलिये शहर और शोर-शराबे से दूर यहाँ गांव में रहता हूँ,... लेकिन माँ का फोन आया कि आप मुझसे मिलना चाहती है इसलिए मना नहीं कर सका....'   अजीब लगा. मै क्या कह्ती समझ नही पा रही थी. अचानक मेरे मुंह से निकल गया - 'मै जर्नलिस्ट हूँ, और मैंने सुना कि आप गोवा फिल्म फेस्टिवल कोलोसिंग सेरेमनी के लिये खास धुन तैयार कर रहे हैं इसलिए हम आपसे बात करने आ गये.' 
बेरुखी के साथ कहा- 'मै जर्नलिस्ट से नहीं मिलता. वो कुछ का कुछ छाप देते हैं.  they are ediots they do gossip only.''
मै तो डर ही गई... बोलने को कुछ बाकी नहीं रहा..
फिर रेमो मारिया से बातें करने लगे. नौकरानी से चाय लाने को कहा...
बड़े सलीके से नौकरानी एक सुंदर से ट्रे में चाय ले आई.. साथ ही कुछ बिस्किट और नमकीन....
बड़े आदर के साथ रेमो हमारी चाय बनाने लगे.  चाय बनाते हुए पूछा - 'शूगर या हनी... मै तो हनी लेता हूँ....'
मैंने पूछा - हनी क्यूँ?
मुस्कुराकर बोले- 'Becouse its honey... Honey is Honey.
चाय पीते हुए वो थोड़े सहज हो गये या कह सकती हूँ कि मै सहज हो गई... मैंने बताया कि मै कल ही जा रही हूँ क्यूंकि मेरे वापसी का रिजर्वेशन कल का ही है. क्लोसिंग सेरेमनी तक नहीं रुक पाऊँगी.
रेमो बोले- 'So sad, my bad luck. you r pretty woman, i could sing for you.
जब हम चलने लगे तो रेमो ने कहा - 'Teke my email id and send me you questionnaier, I will answer your question... and pls remember do not change in my ANSWER.'
मैंने उन्हें भरोसा दिलाते हुए कहा - इत्मीनान रहें.
मै दिल्ली आ गई.  उन् दिनों एक ओल्ड ऐज होम के लिये कांसिलिंग का काम करती थी. मिस्टर आर.कुमार (विद्द्वान डॉ धीरेन्द्र वर्मा के बेटे और रिटायार  उच्य लेखा अधिकारी).  और डॉ नरेन की मदद से.  आर . कुमार को मै दादा बुलाती थी.. उनसे मिले काफी दिन हो गये थे, इसलिए गोवा से आते ही उनका फोन आया कि कहाँ हो और तुम्हारा गोवा ट्रिप कैसा रहा, शाम को मिलो तो पूरा डीटेल्स सुनेगे. 
नोयडा के जिमखाना (फेमस क्लब) में मिले.. गोवा की एक-एक  बातें  बच्चे की तरह उत्साहित होकर दादा को सुना रही थी कि अचानक मेरा फोन बजा देखा तो मारिया का फोन था... फोन उठाते ही उत्तेजना में डूबी मारिया की आवाज़ ज़ोर-ज़ोर से मुझसे कह रही थी- "Asmi, Asmi,   'Dear, can you hear this, I'm so happy and excited for you, Remo is singing for you. he said infront of all crowds - this song is for that lovely girl who came all the way from Delhi to Goa to see me. I'm dedicating this song to that beautiful lady.'
फोन पे शोर के सिबा मुझे कुछ भी सुनाई नहीं दे पा रहा था लेकिन मारिया की चहकती खुशी बहुत कुछ वयान कर रही थी...
उसी रात को लौट कर मैंने रेमो को अपने प्रश्न इमेल किये... अगले ही दिन उनका जवाब आ गया...
मेरी मुश्किल और बढ़ गई. क्यूंकि मैंने तो झूठ बोला था कि मै प्रेस से हूँ और आपका इंटरभिउ छापूंगी... क्युंगी मै तब किसी भी पेपर या मैगेजिन से नहीं जुडी थी...खैर! मेरे मित्र अभिजीत सिन्हा तब "सहारा टाइम्स" में काम करते थे. उन्हें बाताया तो वो फ़ौरन उन्होंने मुझे वो इंटरब्हिव ईमेल करने को कहा. मैंने  ईमेल कर दिया और एक जनवरी २००५ को  वो छपी... ऐसा नहीं की इससे पहले मेरे आर्टिकल नहीं छपे लेकिन 'रेमो' के आर्टीकल से जो खुशी मुझे मिली ... उसके लिये शब्द नहीं हैं..वो आर्टिकल मैंने मारिया और रेमो दोनों को भेजा....
एक शाम अचानक मेरे पास फोन आया की तुम कहाँ हो, मै दिल्ली में हूँ. मैंने पूछा- कौन? वो बोले - 'रेमो'.
मुझे यकीन नहीं हुआ. वो बोले- 'दिल्ली में कोई जिमखाना क्लब (वही जगह जहाँ मै दादा के साथ बैठी थी और मारिया ने मुझे रेमो के गीत सुनाने की कोशिश की थी) है,,, वहाँ मेरा 'शो' है... तुम आयोगी.?
उस शाम मै उनकी खास मेहमान थी... रेमो गा रहे थे... नाच रहे थे... और वो सब जैसे मेरे लिये....मै उस रात दुनिया की सबसे खूबसूरत और खुबनसीब औरत थी... खुले आसमान के नीचे,,, तारों  भरी रातों में हवा में एक मदहोशी भरी महक  थी... उस रात जैसे मुझे और कुछ नहीं चाहिए था...
शो के बाद हमने साथ डिनर खाया... एक बहुत अच्छे मेजवान की तरह रेमो ने अपने मेहमान (मेरा) का ख्याल रखा... कितनी-कितनी बातें.... कब सुबह हो गई पता ही नहीं चला.. सुबह ८ बजे की उनकी flight थी. उन्हें एअरपोर्ट छोड़ा और घर आ गई. कुछ ही देर में उनका मैसेज आया- 'I;m about to fly. take care.'
मेरे लिये सबकुछ एक सुंदर सपने जैसा था. इनता बड़ा कलाकार और इतना सहज...
कुछ दिनों बाद जो आर्टिकल छपा था उसक एक हज़ार का चेक आया... उन्ही दिनों 'वेलेंटाईन डे १४ फेब'' आने वाला था... मै उन पैसों से अपने लिये कुछ ऐसा खरीदना चाहती थी जो यादगार हो. मेरी तमन्ना थी की मेरा 'बॉय फ्रेंड' मुझे साडी गिफ्ट करे क्यूंकि कभी किसी ने नहीं किया... तो मैंने नल्ली (जो की मशहूर साडी की दुकान है) वहाँ से लाल बाडर लो साडी खरीदी.....
आज भी वो साडी मेरे पास है और जब मै वो साडी पहनती हूँ तो लगता है- लाल, लाल, लाल, जग लगे है मोहे लाल, लाल....


कुछ हवादिस पे निस्बते इश्क की नहीं मौकूफ, उम्र भर इक मुलाकात चली जाती है...मीर*

आम का मौसम और नानी घर


मुम्बई में आम का मौसम आ गया. शायाद पूरे भारत में आम का मौसम आ गया है. लेकिन आम यहाँ इतने मंहगे हैं की पूछो मत. एक आम की कीमत २०० रुपुए. कीमत देख कर ही दिल भर जाता है, या फिर खरीद भी लो तो खाने का मन कम और डायनिग टेबल पर सजा के रखने का दिल ज्यादा करता है....
ऐसे में नानी घर के आमों की याद आती है. मेरा बचपन नानी घर में ज्यादा बीता. संथालपरगना के लक्ष्मीपुर में था मेरा नानी घर जो की आज कल झारखंड में आता है. तब बिलकुल आदिवासियों के बीच में घिरा हुआ गाँव था. चारों तरफ़ हरियाली ही हरियाली....प्रकृति की खूबसुरती देखते ही बनती थी. गठीले गबरू जवान, साहसी मर्द और गांव की सोंधी मिटटी सी महकती औरतें इतनी सुंदर कि एक बार  ऐश्वर्या राय भी शरमा जाए. खुद्दार और साहसी औरतें... पीपल की ऊँची-ऊँची फुनगियों तक पंहुच जाती थी .  पीपल के पत्ते तोडती थीं. कुछ जानवरों को खिलाने के लिये और कुछ का शायाद पतों को उबालकर शराब भी बनाती थीं. उन्हीं पतों से अपने बालों को भी सजा लेती थीं.  प्यार में साहस और जूनून ऐसा की अपने प्रेमी को कंधे पे उठाके चल दे.........
ओह! बात चली थी आम की. हाँ नानी घर में आम का बहुत बड़ा बगीचा था...
नाना जी ज़मींदार थे. डेढ़ सौ बीघा ज़मीन पर सिर्फ आम के ही बगीचे लगे हुए थे.... दूर- दूर तक बस आम ही आम के पेड़ दिखाई देते थे.. कि अक्सर उसमें खो जाने का डर होता. दसहरी, मालदा, कलकतिया, लंगड़ा, मिठुया, खट्टा-मीठा, राजभोग, सुगवा और ना जाने क्या-क्या नाम थे.
अक्सर गर्मियों में जो की आम का मौसम होता है हमसब नानी घर आ जाते थे.मासी जी भी अपने बच्चों के साथ आ जाती थीं. उनके तीन बच्चे थे. बड़े मामा जी के तब ६-७ बच्चे थे (अब नहीं रहे, उन्में से कई की असमय मौत हो गई), बीच वाले मामाजी के 3 बच्चे, और छोटे वाला मामा जी के भी २ बच्चे. और हम चार भाई-बहन (तीन बहन और एक भाई, जो कि बहुत ही दुष्ट था. नाना जी ने उसका नाम कडवा रखा था (भैंस के बच्चे को कहते हैं, नाना जी की एक आदत थी वो सभी बच्चों का नाम जानवरों के नाम पे रखते थे....) सभी भाई-बहन मिलकर दर्जनों हो जाया करते थे. राम की वानर सेना की तरह... सबके सब एक से बढ़कर एक बदमाश.... कौन कम है कहना मुश्किल....बहुत सी बदमाशियां करते. ऐसे हम किसी के साथ नहीं थे लेकिन बदमाशी में हमारा प्रोटोकाल एक हो जाता.  सब जैसे हम साथ-साथ हैं.  जो हमसे बड़े होते वो हमपे अपना हुकुम चलते और हम अपने से छोटे पर अपना हुकुम जताते. सब अपने - अपने ओहदे के हिसाब से अपना किरदार निभाते.   कभी खेतों में भाग जाते तो कभी पोखर में मंछली पकड़ते, कभी कुयें पर जो पानी वाली मशीन लगी होती, उसमे नहाते.....और इस डर से की घर जाने पर पिटाई होगी... वहीँ धुप में बैठकर कपड़े सुखाते और जब कपड़े सुख जाते तब घर आते......हमें गंदा देखकर कभी डांट पड़ती तो कभी की हम भूखे होंगे जल्दी-जल्दी खाना मिल जाता. माएँ इतनी सारी थी . हमें बचपन में पता ही नहीं था कि असल वाली (biological mother) कौन है. सब मामी, मासी मिलकर सभी बच्चों का काम करती तो मुझे क्या पता कौन किसकी माँ है. हाँ, जब पहली बार होश में मार पड़ी तो पता लगा कि ये असली वाली माँ है. अपनी माँ मारती है और बाकी सब मामी-मासी मिलकर pamper करती थी. .... इस तरह थोड़ा पता   चला कि असली माँ कौन है... फिर भी ज्यादा कोई फर्क नहीं पड़ता था..... हम अपना काम बड़े हक से किसी से भी (मामी-मासी)  करवा लेते थे इसलिए असल वाली माँ की ना कमी महसूस होती ना ही उनकी ज़रूरत...... रहो तुम माँ! हमें क्या लेना-देना.......
गर्मियों में सब बच्चों को  खिला -पिलाकर सुला दिया जाता था.... कोई बाहर नहीं निकलेगा सख्त पाबंदी होती थी..... लेकिन हम भी कहाँ मानने वाले थे..... हम तो शैतानों के शैतान थे जैसे ही घर के सभी लोग सो जाते  हम  पीछे के दरवाज़े से एक-एक करके  बाहर भाग जाते.... और आम के बगीचे में पंहुच कर बंदरों जैसे उत्पात मंचाते. पेड़ पर चढ जाते और हमें पता होता था कि कौन सा आप मीठा है..... जब आम कच्चे होते तो हम घर से नामक चुराकर लाते थे. और कच्चे आमों को नमक के  साथ खाते. कई बार तो हमारे मुंह में छाले भी हो जाते थे लेकिन परवाह किसको थी... आम खाना है, बस  तो खाना है. जब पकड़े जाते तो बड़े मामाजी की बड़ी मार पड़ती थी लेकिन तब भी बीच में नानी जी ढाल बनकर आ खड़ी हो जाती. और कहती - "बच्चे हैं, अरे ! ये बदमाशी नहीं करेगे तो क्या तू करेगा?"  नानी जी यानी नानाजी की माँ और मेरी माँ की दादी. मेरी नानी को तो मैंने देखा ही नहीं. वो तो मेरी माँ की शादी के कुछ ही दिनों बाद मर गई थीं.... नानी जी की घर में हुकूमत चलती थी. मज़ाल है कि उनकी मर्ज़ी के बिना एक पत्ता भी हिल जाए.... एक बार जो कह दिया सो कह दिया.... जो कहा, वही होगा....नानी जी का पूरा गांव आदर करता था. नानाजी भी वही करते जो नानीजी (परनानी) कहती थीं... कई बार तो उन्होंन हम बच्चों के सामने हमारे नानाजी पर हाथ भी उठा दिया था. और नानाजी चुपचाप सीधे बच्चे की तरह दरवाज़े पे चले जाते (आजकल के माँ - बाप ज़रा अपने जवान बच्चे पे हाथ उठाके दिखाये तो??????)
सबसे ज्यादा मज़ा तब आता जब आम पक जाते.... फिर तो नाना जी खुद हम सब बच्चों को और घर के नौकर और मजदूरों को लेकर बगीचे मै जाते.... हमें पके हुए आमों की खुशबू बहुत भाती थी... ऐसे भागते उन खुशबू की तरफ़ जैसे जंगल में हिरन भागता है....पके हुए आम अपने आप पेड़ों से टपक के गिरते... उनके टपाक से गिरने की आवाज़ से सीधे उस तरफ़ भागते जिस तरफ़ से आवाज़ आती... सब एक साथ दौड़ लगाते. कौन सबसे पहले आम लुटता है.....
आम खाना नानाजी ने ही सीखाया... पके हुए आमों को बड़ी - बड़ी बालटियों में भर कर कुएँ में डुबो दिया जाता फिर कुछ देर बाद उसे बाहर निकाल कर उसके ऊपर वाले हिस्से को मुंह से काटकर उसमें से २-४ बूंद रस निकाल लिये जाते.  नानाजी कहते इससे आम की गर्मी निकल जाती है और पेट के लिये अच्छा रहता है. आमों के मौसम मै तो कुएँ में बाल्टी के बाल्टी आम भरे ही रहते. और जैसे ही घर पर कोई आता आम उनके स्वागत के लिये  तैयार रहता......
रात में खाने के समय बड़े बड़े परात में आम रख दिया जाते.... एक-एक बच्चे कम से कम १० से २० आम खा जाते थे. मै खाती कम थी और गिराती ज्यादा.... आज भी मेरी वो आदत नहीं गई... आज भी खाते हुए मेरे कपड़े गंदे हो ही जाते हैं... हाँ, पहले बात  यह थी कि हाँथ - मुंह धुलाकर मामी नए फ्रोक पहना देती थी. मेरे फ्रोक पे हमेशा बहुत सुंदर सुंदर फूलों की कढाई होती थी.  मेरी माँ और बीच वाली मामी को कढाई का बहुत शौक था... मुझे बचपन के वो फ्रोक आज  भी याद है... कुछ दिनों पहले मैंने माँ से कहा-  "माँ, मेरे लिये फिर से वैसे ही कढाई वाला कुछ बना दो ना."  माँ बोली-  "कहाँ बेटा! तब की बात  और थी, तब लालटेन की रौशनी में भी रात-रात भर जग कर कढ़ाई-सिलाई करती थी. अब कहाँ. अब तो रौड की धुधिया रोशानी में भी आखें काम नहीं करतीं...."  मुझे याद है जब पापा इमरजेंसी में जेल चले गए और जेल से आने के बाद हमसब भाई-बहन को छोड़ कर देशसेवा करने निकल पड़े तो माँ ने हम चारों भाई बहन को सिलाई - कढाई करके ही बड़ा किया..   नाना जी मदद करना चाहते तो माँ का आत्मसम्मान आड़े आता. वो कहती -  "नहीं, बाबु जी!  माँ है नहीं, भाभियाँ हैं, परायी हैं किसी दिन पलट के उलाहना दे दिया तो? "
आम का मौसम खत्म होने को होता तो नाना जी कहते - "जी भरकर आम खा लो, अब अगले साल ही आम मिलेगा."  पर आम से इस तरह मन भर चुका होता कि आम के नाम से ही पेट भर जाता....
काश कि आज भी ऐसा होता... सुना है आम सभी फलों का  राजा है. अमीर-गरीब सब आम खाते हैं.  
दुआ करती हूँ कि सबको आम   नसीब हो...

मेरी कुछ और कविताएं

असीमा भट्ट

1.
दुर्दिन में भी मासूम बच्चे खिलखिलाकर हंस रहे हैं
क्यारियों में अब भी खिल रहे हैं फूल
तितलियां अब भी नृत्य कर रही हैं
प्यार में धोखा खाई हुई प्रेमिकाएं
अब भी प्रेम कर रही हैं
चूम रही हैं अपने प्रेमी का माथा
कैसे कहें
वक्त बुरा है...

2.

मेरा मन
शून्य है
निराकार
जहां बजती है
तुम्हारी याद की घंटियां
रह रह कर
किसी प्राचीन, सुदूर मंदिरो की घंटियों की तरह
ब्रह्मांड रचने लगता है
इक नया संसार
इक नवजात शिशु किलकारियां लेता हुआ आ रहा है
मां के गर्भ से बाहर
रचने इस विश्व में
प्रेम का इक नया इतिहास...

3.
धीरे धीरे बोलो
हो सके तो मौन ही रहो
अभी शांत हुआ है
तलाब का ठहरा हुआ पानी...

4.
तुम एक
भटके हुए राही हो
और मैं इक राह
जिस पर से कोई गुजरा ही नहीं...

घर आई मां, इतने सालो बाद

असीमा भट्ट

घर आई है
सालो  बाद
मेरे घर..मेरे पास
छोटे से शहर से महानगर में
दूर दराज के शहरों के हमलोग
अजनबियो के बीच कितने अजनबी होते हैं
झूठमूठ के सपनो के लिए
मेले में खोए बच्चों की तरह
कुछ कुछ अनाथ से
वहीं जब मां आती है
भरी जेठ की दुपहरी में
मार्च की गुनगुनी धूप की तरह
धधकती लू में सावन की फुहार की तरह
मां आयी है...

लौट आया है फिर से मेरा बचपन
मां लेकर आयी है गांव से शुद्ध घी और शुद्ध नारियल का तेल
जिसमें उसलने अपने हाथो से मिलाया है कई जड़ी-बूटियां...
कहती है- कितने सुंदर थे तुम्हारे बाल,
और यहां देखो, कितने बेजान और रुखे हो गए..
अपने हाथो से तेल लगाती है मेरे बालों में और कहती-इससे तुम्हारे बाल झड़ने कम हो जाएंगे।

उन्हें शायद नहीं पता कि इस महानगर में बाल तो क्या हमारी जिंदगी भी दिन-ब-दिन झर रही है...
पूछती है-क्या खाएगी आज ?
नहीं बिना खाए घर से नहीं निकलते.
अच्छा नहीं होता, बिना कुछ भी खाए घर से निकलना..
कि सुबह-सुबह जब हम जल्दी में एक कप चाय पी कर भाग रहे होते हैं
 काम पर जल्दी और कहीं पहुंचने की हड़बड़ी में
तो मां लिफ्ट तक पीछे पीछे भागती हुई आती है
-कमसेकम एक पेड़ा तो खा लो...
और हम कैलोरीज और वेट बढने की चिंता से बेफिक्र,
बच्चों की तरह
दोनो हाथों से खाते जाते हैं पेड़ा
जैसे हम छुटपन में स्कूल जाते हुए रास्ते भर चबाते जाते थे लेमनचूस और लौलीपौप
मां तुम ऐसे ही आती रहो ना मेरे पास
ताकि हम ले सकें सुकून की कुछ सांस तुम्हारी गोद में सर रखकर....

ओ..मेरे सबकुछ

असीमा भट्ट 

मेरे सबकुछ
लिखना चाहती हूं तुम्हें,
मेरे सबकुछ
मेरे प्यारे
मेरे अच्छे
मेरे अपने
मेरे सबकुछ...
चलो..ले चलूं तुम्हें चांद के उस पार
ना जाने क्या हो वहां...
बरसो से सुनती आई हूं
चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो..
चलो मेरे सबकुछ, हम हैं तैयार चलो...
चलो कि चलें रेगिस्तान में
जहां रेत चमकती है पानी की तरह
बुझा लूं मैं उनसे अपनी प्यास
जो लोग समझते हैं कि वो रात
मृगतृष्णा है
और मृगतृष्णा से प्यास नहीं बुझती...
बहुत सयाने हैं वो लोग.
हम नही होना चाहते
उतने सयाने
मैं अपनी प्यास बुझाने की तलाश बरकरार रखना चाहती हूं मेरे सबकुछ...
मेरे सबकुछ
मैं झूम जाना चाहती हूं
तुम्हारी दोनों बांहों में
सावन के झूले की तरह
कि छू लूं मैं आकाश का एक कोना
तुम्हारी बांहों के सहारे
और लिख दूं
उस कोने पर तुम्हारा नाम-मेरे सबकुछ...
चलो कश्मीर चलें.
गर धरती पर जन्नत है तो--यहीं हैं, यहीं हैं, यहीं हैं...
मर कर जन्नत किसने देखा है
चलो, बना दूं लाल चिनार के पत्तों से मैं तेरा सेहरा
और बना लूं तुम्हें अपना सबकुछ...
मेरे सबकुछ...
मेरे सबकुछ.. ले चलना मुझे समद्र के किनारे
जहां देखना है समद्र को अपने सतह से ऊपर उठते हुए
कि लहरों को रौंद कर, कर देती है
सबकुछ इक
कि समुद्र और आसमान का फर्क मिट जाता है
और लगता है कि समुद्र में आसमान है या आसमान में समुद्र
हम-तुम पार कर आए उम्र की हर धुरी
पार कर लीं हर लकीरें
जहां खत्म हुई उम्र की सीमा और
शुरु हुआ हमारा प्यार मेरे सबकुछ...
मेरे सबकुछ...
अब हो कोई भी राह, कोई भी डगर, कोई भी मोड़
कभी अकेली मत छोड़ना मुझे
कि थक गई हूं इस अकेलेपन से
उम्र से लंबा मेरा
अकेलापन, तन्हाई, सूनापन
कि डर लगता है इससे
कि जैसे डरता है बच्चा
अंधेरे से
और घबरा कर रोते हुए पुकारता है -मां.........
वैसी ही पुकारती हूं तुम्हें
मेरे सबकुछ...

(यह कविता अमृता प्रीतम और इमरोज को समर्पित है। और उन तमाम अमृता को जो अपने अपने इमरोज की तलाश में भटर रही हैं..अमृता, इमरोज को--मेरेसबकुछ--बुलाती थीं।)



क्षणिकाएं


असीमा भट्ट

1.
रात सो रही है...
मैं जाग रही हूं...
गोया बे-ख्वाब मेरी आंखें
और मदहोश है जमाना...

2.
बहुत खाली-खाली है मन
माथे पर इक बिंदी सजा लूं...

3.
अचानक कहीं-कहीं से
बुलबुल बोल उठती है
दिल में भूली-बिसरी यादें हूक बनके उठती हैं...

4.
मैं सड़क पार कर रही हूं
और महसूस हो रहा है
कि तुमने मजबूती के साथ, कस के मेरा हाथ थाम रखा है...

5.
छोटी होती जा रही जिंदगी...
बड़ी तुम्हारी यादें
और उससे भी बड़ा
हमारे-तुम्हारे बीच का फासला...

अब दुनिया के सामने एक सवाल हैं मेरे पापा-सुरेश भट्ट

असीमा भट्ट

सुरेश भट्ट-कोई आम इनसान नहीं हैं। छात्र आंदोलन से लेकर जे.पी. आंदोलन तक सक्रिय रहने वाले इनसान ने सारा जीवन समाज के लिए झोंक दिया। सिनेमा हॊल और करोड़ो की जायदाद के मालिक जिनका ईंट का भट्टा और अनगिनत संपति थी, सब को छोड़ने के साथ अपनी अपनी पत्नी और चार छोटे छोटे बच्चों को भी छोड़ दिया। और समाज सेवा में सच्चे दिल और पूरी ईमानदारी से जुट गए। कभी अपनी सुख सुविधा का खयाल नहीं किया। सालों जेल में गुजारा..लालू यादव से लेकर नीतिश कुमार और जार्ज फर्नांडिस तक उन्हें गुरुदेव से संबोधित करते थे... सारे कॊमरेड के वह आईडियल थे...आज वह इनसान कहां है ? क्या किसी भी नेताओं को या आम जनता को जिनके लिए लगातार वो लड़े और फकीरो की तरह जीवन जीया...कभी सत्ता का लोभ नहीं किया..वो कहते थे --हम सरकार बनाते हैं, सरकार में शामिल नहीं होते..बहुत कम लोग इस बात पर यकीन करेंगे कि सुरेश भट्ट का कोई बैंक एकाउंट कभी नहीं रहा। जेब में एक रुपया भी रहता था तो वो लोगो की मदद करने के लिए तत्पर रहते थे। और लोगो को वो रुपया दे देते थे। कभी उन्होंने अपने बच्चो की परवाह नहीं की। हमेशा कहा करते थे--सारे हिंदुस्तान का बच्चा मेरे बच्चे जैसा है। जिस दिन सारे हिंदुस्तानी बच्चे का पेट भरा होगा उस दिन मुझे शांति मिलेगी। लाल सलाम का झंडा उठाया पूरा जीव, अपने आप को और अपने स्वास्थ्य को इगनोर किया। अपने प्रति हमेशा ही लापरवाह रहे और घुमक्कड़ी करते हुए जीए...आज वो इनसान दिल्ली के ओल्ड एज होम में क गुमनाम जिंदगी जी रहा है। छह साल पहले उनका ब्रेन हेमरेज हुआ था तब से वे अस्वस्थ हैं।
अब दुनिया के सामने एक सवाल है...एसे लोगो का क्या यही हश्र होना चाहिए जो दुनिया के लिए जीए, आद दुनिया उन्हीं से बेखबर है....

मेरी कविता...

पिता   

शाम काफी हो चुकी है
पर अंधेरा नहीं हुआ है अभी
हमारे शहर में तो इस वक्त
रात का सा माहौल होता है।
छोटे शहरों में शाम जल्दी घिर आती है
बड़े शहरों के बनिस्बत लोग घरों में
जल्दी लौट आते हैं
जैसे पंछी अपने घोंसलों में।

यह क्या है/ जो मैं लिख रही हूं।
शाम या रात के बारे में
जबकि पढऩे बैठी थी नाजिम हिकमत को
कि अचानक याद आए मुझे मेरे पिता।

आज वर्षों बाद
कुछ समय/ उनका साथ मिला
अक्सर हम हमने बड़े हो जाते हैं कि
पिता कहीं दूर छूट जाते हैं।

पिता के मेरे साथ होने से ही
वह क्षण महान हो जाता है।

याद आता है मुझे मेरा बचपन
मैक्सिम गोर्की के मेरा बचपन की तरह
याद आते हैं मेरे पिता
और उनके साथ जीये हुए लम्हें।
हालांकि उनका साथ उतना ही मिला
जितना कि सपने में मिलते हैं
कभी कभार खूबसूरत पल।

उन्हें ज्यादातर मैंने
जेल में ही देखा
अन्य क्रांतिकारियों की तरह
मेरे पिता ने भी मुझसे सलाखों के
उस पार से ही किया प्यार।

उनसे मिलते हुए
पहले याद आती है जेल
फिर उसके पीछे लोहे की दीवार
उसके पीछे से पिता का मुस्कुराता
हुआ चेहरा।

वे दिन-जब मैं बच्ची थी
उनके पीछे-पीछे/ लगभग दौड़ती।
जब मैं थक जाती
थाम लेती थी पिता की उंगलियां
उनके व्यक्तित्व में मैं ढली
उनसे मैंने चलना सीखा
चीते ही तरह तेज चाल
आज वे मेरे साथ चल रहे हैं,
साठ पार कर चुके मेरे पिता
कई बार मुझसे पीछे छूट जाते हैं।

क्या यह वही पिता है मेरा... साहसी
फुर्तीला।
सोचते हुए मैं एकदम रूक जाती हूं
क्या मेरे पिता बूढ़े हो रहे है?
आखिर पिता बूढ़े क्यों हो जाते हैं?
पिता। तुम्हें  बूढ़ा नहीं होना चाहिए
ताकि दुनिया भर की सारी बेटियां
अपने पिता के साथ/ दौडऩा सीख सके
दुनिया भर में...

मेरे बारे में

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मैं कौन हूं ? इस सवाल की तलाश में तो बड़े-बड़े भटकते फिरे हैं, फिर चाहे वो बुल्लेशाह हों-“बुल्ला कि जाना मैं कौन..” या गालिब हों- “डुबोया मुझको होने ने, ना होता मैं तो क्या होता..”, सो इसी तलाश-ओ-ताज्जुस में खो गई हूं मैं- “जो मैं हूं तो क्या हूं, जो नहीं हूं तो क्या हूं मैं...” मुझे सचमुच नहीं पता कि मैं क्या हूं ! बड़ी शिद्दत से यह जानने की कोशिश कर रही हूं. कौन जाने, कभी जान भी पाउं या नहीं ! वैसे कभी-कभी लगता है मैं मीर, ग़ालिब और फैज की माशूका हूं तो कभी लगता है कि निजामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो की सुहागन हूं....हो सकता कि आपको ये लगे कि पागल हूं मैं. अपने होश में नहीं हूं. लेकिन सच कहूं ? मुझे ये पगली शब्द बहुत पसंद है…कुछ कुछ दीवानी सी. वो कहते हैं न- “तुने दीवाना बनाया तो मैं दीवाना बना, अब मुझे होश की दुनिया में तमाशा न बना…”

वक्त की नब्ज

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